जीवन बढ़ता जाता
कन्टकीर्ण
मार्ग पर
अकेले चलने में
दुःख न होता फिर भी |
क्यूँ कि आदत सी
हो गई अब तो
सब कुछ झेलने की
सब कुछ झेलने की
अकेले ही रहने की |
कोई नहीं अपना
सभी गैर लगते हैं
एक निगाह प्यार भरी
देखने को तरसते हैं |
कुछ कहने सुनाने का
अर्थ नहीं किसी से
ना ही किसी को हमदर्दी
मेरे मन को लगी ठेस से |
तब क्यूँ अपना समय
व्यर्थ
बर्बाब करूँ
नयनों से मोती से
अश्कों को बहाऊँ |
गिरते पड़ते सम्हलते लक्ष्य तक
पहुँच ही जाऊंगी
अभी तो साहस शेष है
दुःख दर्द को सहन कर पाउंगी |
यदि कोई अपना हो तब
दर्द भी बट जाता है
अपने मन की बात कहने से
मन हल्का हो जाता है |
अब कंटक कम चुभते हैं
घाव उतने गहरे नहीं उतरते
जितना गैरों का कटु भाषण
मन विदीर्ण करता |
आशा
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 01 मार्च 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंसूचना हेतु आभार यशोदा जी |
घाव उतने गहरे नहीं उतरते
जवाब देंहटाएंजितना गैरों का कटु भाषण
मन विदीर्ण करता |
...हृदय विदारक बातों का असर, आघातक होता है। आसान नहीं इन्हें झेल पाना।
सुन्दर रचना...प्रभावशाली ।
सुप्रभात
हटाएंधन्यवाद पुरुषोत्तम जी टिप्पणी के लिए |
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (02-03-2020) को 'सजा कैसा बाज़ार है?' (चर्चाअंक-3628) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
*****
रवीन्द्र सिंह यादव
सुप्रभात
जवाब देंहटाएंसूचना हेतु आभार रवीन्द्र जी
बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंटिप्पणी के लिए आभार सहित धन्यवाद ओंकार जी |
सुन्दर भावों से सुसज्जित बेहतरीन रचना !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद टिप्पणी के लिए साधना |
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर बेहतरीन रचना !
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