01 मार्च, 2020

अब क्या सोचना


जीवन बढ़ता जाता 
 कन्टकीर्ण मार्ग पर
 अकेले चलने में
 दुःख न होता  फिर भी |
क्यूँ कि आदत सी
 हो गई  अब तो
  सब कुछ  झेलने की
 अकेले  ही  रहने  की  |
कोई नहीं अपना
 सभी गैर लगते हैं
एक निगाह प्यार भरी
 देखने को तरसते हैं |
कुछ  कहने सुनाने  का 
अर्थ नहीं किसी से
ना ही किसी को  हमदर्दी 
मेरे मन को लगी ठेस से |
तब क्यूँ अपना समय
 व्यर्थ  बर्बाब करूँ
नयनों से मोती से 
  अश्कों को  बहाऊँ  |
गिरते पड़ते सम्हलते लक्ष्य  तक
 पहुँच ही जाऊंगी
अभी तो साहस शेष है
 दुःख दर्द को  सहन कर पाउंगी  |
यदि कोई अपना हो तब
 दर्द भी बट जाता है
अपने मन की बात कहने से 
मन हल्का हो जाता है |
 अब कंटक कम  चुभते हैं
 घाव उतने  गहरे नहीं उतरते  
 जितना गैरों का कटु भाषण
 मन विदीर्ण  करता  |
आशा

 
  

11 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 01 मार्च 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. घाव उतने गहरे नहीं उतरते
    जितना गैरों का कटु भाषण
    मन विदीर्ण करता |
    ...हृदय विदारक बातों का असर, आघातक होता है। आसान नहीं इन्हें झेल पाना।
    सुन्दर रचना...प्रभावशाली ।

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    1. सुप्रभात
      धन्यवाद पुरुषोत्तम जी टिप्पणी के लिए |

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  3. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (02-03-2020) को 'सजा कैसा बाज़ार है?' (चर्चाअंक-3628) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    *****
    रवीन्द्र सिंह यादव

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  4. सुप्रभात
    सूचना हेतु आभार रवीन्द्र जी

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  5. उत्तर
    1. सुप्रभात
      टिप्पणी के लिए आभार सहित धन्यवाद ओंकार जी |

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  6. सुन्दर भावों से सुसज्जित बेहतरीन रचना !

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  7. धन्यवाद टिप्पणी के लिए साधना |

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