घर तो घर ही होता है
देश में हो या परदेश में
जहां चार जने अपने होते है
वहीं स्वर्ग हो जाता है |
एक दूसरे का सुख दुःख
अलग नहीं होता
आपस में बांट लिया जाता
ऐसा प्यार कहीं नहीं मिल पाता|
चार दीवारों से मकान तो बन जाता
पर घर नहीं बन पाता
केवल एक छत के नीचे रहने से
पर मनों के ना मिलने से वह सराय हो जाता |
सच्चा घर तो वही है जहां
अपनापन लिए हुए सब उलझनों का
समस्याओं का निदान हो जाता है
दो जून की रोटी का जुगाड़ हो जाता है |
सब मिल बाँट कर भोजन कर लेते है
समस्याओं के हल खोज लेते हैं
मेरा तेरा नहीं करते वही अपने कहलाते
प्यार के दो बोल के लिए नहीं तरसाते |
घर को स्वर्ग कहा जाता है
यूँ ही नहीं उसमें है योगदान
घर के रहवासियों का भी
वही मकान को घर में बदल देते हैं |
आशा
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (22-9 -2020 ) को "काँधे पर हल धरे किसान"(चर्चा अंक-3832) पर भी होगी,आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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कामिनी सिन्हा
सुप्रभात
हटाएंसूचना के लिए आभार कामिनी जी |
बिलकुल सच है ! प्यार, अपनेपन और ममत्व से एक झोंपडा भी घर बन जाता है और इनके अभाव में महल भी इमारत भर बने रहते हैं घर नहीं कहलाते ! सार्थक रचना !
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंटिप्पणी के लिए धन्यवाद साधना |
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ओंकार जी टिप्पणी के लिए |
हटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ओंकार जी टिप्पणी के लिए |