कोरे कागज़ सा मन बचपन
का 
भला  बुरा न समझता 
ना  गैरों का प्यार
जो  होता मात्र दिखावा |
दुनियादारी से दूर
बहुत 
 मन उसका कोमल कच्चे
धागे सा 
जितना सिखाओ सीख  लेता  
उसी का अनुकरण करता
|
गुण अवगुण का भेद  न जान   
अपने पराए में भेद न
करता  
 मीठे बोल उसे करते आकृष्ट     
 खीचा चला जाता उस ओर|
जिसने भी बोले  मधुर बोल 
 उसी को अपना मानता
 होती वही प्रेरणा उसकी
उसी का  अनुगमन करता |
मन तो मन ही है
 बचपन में होता चंचल जल सा  
स्थिर नहीं रहता 
जल्दी ही बहक जाता
है |
जरा सा दुलार उसे अपना
लेता 
माँ से बड़ा जुड़ाव है
रखता  
 उसमें  अपनी छाया पा
  मन मेरा
 गर्व से उन्नत होता |
आशा 


