बरसों बरस होती
संचय की आदत सब में
यादों के रूप में
यही मेरे साथ हुआ है |
पुरानी यादों को
बहुत सहेज कर रखा है
अपनी यादों के पिटारे में
यह पिटारा जब भी खोलती हूँ
बहती जाती हूँ
विचारों के समुन्दर में|
इससे जो सुख
दुःख मुझे मिलता
है इतना अनमोल कि
उसको किसी से बांटने का
मन नहीं होता |
बचपन की मीठी यादे मुझे ले जाती उस बीते कल में
वे लम्हे कब बीत गए
पिटारा भरने लगा |
जब योवन में कदम रखा
समस्याओं से घिरी रही
वे दिन भी यादों में ताजे है |
धीरे से समय कब बीता
जीवन में आया स्थाईत्व
सब याद रहा एक तस्वीर सा
अब बानप्रस्थ की बारी आई |
जिम्मेंदारी में उलझी
एक एक लम्हां कैसे कटा
सब है याद मुझे |
जीवन की संध्या में यही माया मोह
मेरा पीछ नहीं छोड़ता कैसे दुनियादारी से बचूं |
कीं जैसे ही ऊंची उड़ान की कल्पना
मन के पंख कटे
ठोस धरातल पर आई |
आस्था की ओर कुछ झुकाव हुआ है
यही है सार मनोभावों का जो मैंने छिपाए रखा है
यादों के पिटारे में |
आशा
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (२१-०५-२०२२ ) को
'मेंहदी की बाड़'(चर्चा अंक-४४३७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
Thanks for the information of my post
हटाएंवाह वाह!क्या ख़ूब यादों का पिटारा है,बधाई।
जवाब देंहटाएंThanks for the comment
हटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंThanks for the comment
जवाब देंहटाएंवाह ! सम्पूर्ण जीवन का लेखा जोखा समाहित कर दिया अपनी छोटी सी रचना में ! हर व्यक्ति की यही कहानी ! सुन्दर रचना !
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