मेरे साथ ना चल पाया
अलग उसने राह पकड़ी
मुझे बताया तक नहीं |
है क्या मन में
जब मेरे कदम सही ना पड़े
मै उलझ कर गिरी
ऊबड़ खाबड़ मार्ग पर |
क्या वह मुझे सचेत
नहीं कर सकता था
मैंने तो सोचा था
अपने मन की करो |
तभी सही राह चुन पाएगे
मुझे बहुत उत्साह से
आगे बढ़ने में ख़ुशी मिली
पर मन ने ना साथ दिया मेरा
|मेंरी कमज़ोरी का लाभ उठाया |
मन ने जब धोखा दिया
उसे भी संताप हुआ
अपने मन से वादा किया |
भूले से भी उस राह पर जाना नहीं
जिस पर धोखा पल रहा हो
|क्या मालूम जब उसे यहीं रहना हो
फिर उलझन को क्यों न्यौता जाए |
आशा सक्सेना
ऐसा भी होता है कभी कभी ! मन की करने चलो तब भी निराशा ही होती है ! सार्थक सृजन !
जवाब देंहटाएंdhanyavaad sadhana tippanii ke liye
जवाब देंहटाएंसार्थक सृजन
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ओंकार जी टिप्पणी के लिए |
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