17 मई, 2023

था कभी यहीं घर था मेरा



 


 था घर किसी का यहीं पर

बड़ा सा दरवाजा था

लोग ठहर जाते थे

 उसकी भव्यता देख |

 आज है वीरान उजड़ा

सारी रौनक तिरोहित हो गई है

काली गाय दिखाई नहीं देती

नाही पीली कुत्ती का ठिकाना |

वे क्यों ठहरते अब कोई उनकी

परवाह नहीं करता

नाही लाड दुलार करता

ना समय पर खाना देता |

अंदर झाँक कर देखा

वस्तुएं सभी उथल पुथल

कोई देखता तो समझता

है कितना कठिन अकेले जीना |

दरवाजे पर एक बुजुर्ग बैठे खांस रहे थे

अकेले जीवन ढो रहे थे

एक भी व्यक्ति ऐसा ना था

 जो सुख दुःख का साथी होता |

भर आईं मेरी आँखे

घर के ये हाल देख

सोचा जाकर याद दिलाऊँ

 मैं अब आ गई हूँ कहीं नही जाऊंगी |

मैंने भी जमाने की ठोकरे खाई है

यहां तक आते आते

 कितनी कठिनाई झेली हैं

शायद मेरे प्रारब्ध में यही लिखा था  |

अब सीधी राह मिल पाई है

मुझे ख़ुशी है मै ठीक से आ गई हूँ

अपने जीवन के प्रांगन मै

अब कोई गलत राह ना  पकडूगी|

आधा जीवन तो बीत गया

थोडा सा अभी बाक़ी है

 उसे हरी नाम ले बिताऊँगी

अपना जीवन सफल करूंगी |

आशा सक्सेना 

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