12 अप्रैल, 2014
10 अप्रैल, 2014
एक मतदाता
यह रचना एक सच्चे किस्से पर आधारित है |जब लोग अपना वोट मतदान पेटी में डाला करते थे |
एक प्रत्याशी आया
बड़े प्रलोभन लाया
टेम्पो में सब को लिया
बूथ तक ले आया |
तुमने वोट दिया
मैंने भी वोट दिया
एक महान कार्य
सम्पन्न किया |
एक सीधा साधा प्राणी
बड़े उत्साह से आया
लिस्ट में नाम खोज
बूथ में प्रवेश पाया |
स्याही लगवाई
जोर से गुहार लगाई
वोटिग मशीन
कहाँ है भाई |
चेहरा खुशी से
दमकता था
जब एक साथ
कई बटन दबाए |
उत्सुक प्रत्याशी
पूछ बैठा
किसको वोट दिया
जवाब मिला
सब को खुश किया |
आग बबूला प्रत्याशी
अपना आपा खो बैठा
घूंसे लात जमाए
वहीं छोड़ कर चल दिया |
चोट खाया वोटर
सोच में डूबा
सब को खुश किया उसने
क्या गलत किया |
आशा
07 अप्रैल, 2014
04 अप्रैल, 2014
शब्दबाण
तरकश से निकला
तीर
बापिस नहीं आता
हृदय बींधता जब
खोता जाता संयम |
भूलना भी चाहता
पर
धैर्य साथ न देता
घाव अधिक गंभीर
नासूर होता जाता
|
शब्द चुभ कर रह
जाते
चुभन शूल की देते
शेष रहे जीवन की
शान्ति भंग कर
जाते |
कभी याद आता फेंका
गया
वह मखमल में लिपटा
जूता
जिसे भुलाना संभव
नहीं
केवल पीर ही देता |
वह मृदुभाषी पहले
भी न था
अपेक्षा भी नहीं
थी
पर यह कैसे भूल
गया
कहाँ लगेगा शब्दबाण
कितनों को आहात
करेगा
प्रतिशोध का कारण
तो न होगा ?
02 अप्रैल, 2014
है गुनाहगार तेरी
है वह गुनाहगार तेरी क्यूं कि
तू भी कुछ कर सकता है
यह जज्बा तुझमें
पैदा होने न दिया |
है तू भी सक्षम
हर उस कार्य के लिए
हर उस कार्य के लिए
जो वह हाथों में कर के देती रही
आगे पीछे घूमती रही
बिना बैसाखी चलना
तू भूल गया |
तू भूल गया |
आज भी तू कोई कदम
उठा नहीं सकता
उठा नहीं सकता
बिना उसके सहारे के |
प्यार और दुलार ने
तुझे अकर्मण्य बना दिया
ना कभी कुछ कर पाया
ना चाहत जागी कर्मठ बनने की
स्वयं कुछ करने की |
पहले माँ के
पल्लू से बंधा रहा
अब हो कर रह गया है
परजीवी अपनी होनहार पत्नी का |
आशा
30 मार्च, 2014
बड़े बैनर तले
बड़े बैनर तले
खोली एक दुकान
बड़ा सा शोरूम बनाया
कर्मचारियों की फौज वहां
दिखावा है भरपूर
पर ना ही मानक
गुणवत्ता का
नाहीं मिले कुशल कारीगर
अब पछतावा हो रहा है
आखिर क्या मिला वहां
ऊंची दुकान फीके पकवान
किसी ने सच कहा है
जो चमकता है वह सोना नहीं |
आशा
खोली एक दुकान
बड़ा सा शोरूम बनाया
कर्मचारियों की फौज वहां
दिखावा है भरपूर
पर ना ही मानक
गुणवत्ता का
नाहीं मिले कुशल कारीगर
अब पछतावा हो रहा है
आखिर क्या मिला वहां
ऊंची दुकान फीके पकवान
किसी ने सच कहा है
जो चमकता है वह सोना नहीं |
आशा
28 मार्च, 2014
उनका वैभव
खेतों के उस पार
अस्ताचल को जाता सूरज
वृक्षों के बीच छिपता छिपाता
सुर्ख दिखाई देता सूरज |
पीपल के पेड़ पर
पक्षियों ने डेरा डाला
कलरव सुनाई देता उनका
फिर अचानक शान्ति हो गयी
उनकी रात हो गयी |
अब घरों की छत पर
शाम उतर आई है
आसमान भी हुआ धूसर
पर छत पर बहार आई है |
बच्चे कर रहे धमाल
तरह तरह के करतब करते
नए नए गानों पर थिरकते
चेहरे पर थकान का नाम नहीं |
मस्ती ही उनका वैभव
यह जीवन लौट कर न आएगा
यादों में समा जाएगा
बचपन की सौगात सा |
आशा
सदस्यता लें
संदेश (Atom)