मन भाता कोई नहीं है
नहीं किसी से प्रीत
है दुनिया की रीत यही
हुई बात जब धन की |
सर्वोपरी जाना इसे
जब देखा भाला इसे
भूले से गला यदि फंसा
बचा नहीं पाया उसे |
हुआ दूभर जीना भी
न्योता न आया यम का
बड़ी बेचैनी हुई जब
जीवन की बेल परवान न चढ़ी |
अधर में लटकी डोर पतंग की
पेड़
की डाली में अटकी
जब भी झटका दिया
आगे
न बढ़ पाई फटने लगी |
दुनिया में जीना हुआ मुहाल
अब और कहाँ जाऊं
कहाँ अपना आशियाना बनाऊँ
जिसमें खुशी से रह पाऊँ |
मन का बोझ बढ़ता ही जाता
तनिक भी कम न होता
कैसे इससे निजात पाऊँ
दिल को हल्का कर पाऊँ |
आशा