वे दिन तो थे स्वर्णिम
जब था बचपन का राज्य
हमारे परिवार पर
ना कोई बड़ा ना ही छोटा |
बड़ी जीजी का कहना मानना था जरूरी
मैं और मेरी छोटी बहन उसका कहा मानते
साथ साथ पढ़ते एक ही साथ खेलते थे
एक दूसरे से बेहद स्नेह रखते थे |
पर न जाने कैसे दूसरों का
आगमन
हुआ हमारे घर में
उसने पैर पसारे घर में
तब लगा कोई बाँट रहा है हमारे प्यार को |
हद तो जब हुई जब उसकी भाभी के कदम पड़े
मैं बेचारा यूँ ही खण्डों में बटा
हम इस गाँव वे रहे वहीं जहां पहले रहते थे
है जिम्मेदारी मेरी दौनों घरों की किसी और की नहीं |
किसे प्राथमिकता दूं मेरा मस्तिष्क ही काम नहीं करता
एक का जरासा भी कुछ किया
आ खड़ी होती मेरे सामने
कटु भाषा की तलवार लिए |
अपनी जिम्मेदारी कभी समझी नहीं
यदि मैंने कुछ किया किसी के लिए
पत्नी जी का मुंह चढ़ जाता दो चार दिन के लिए
वह एकाधिकार मुझ पर अपना चाहती |
जैसे मैं हाड़ मॉस का पुतला नहीं हूँ
समझती मुझे कोई निर्जीव सामग्री
या जर खरीदा गुलाम जो
उसके पापा ने भेट किया है |
आशा