03 मई, 2010

यदि ऐसा होता


उपालंभ तुम देते रहे
हर बार उन्हें वह सहती रही
जब दुःख हद से पार हुआ
उसका जीना दुश्वार हुआ
कुछ अधिक सहा और सह न सकी
उसका मन बहुत अशांत हुआ
पानी जब सिर से गुजर गया
उसने सब पीछे छोड़ दिया
निराशा मन में घर करने लगी
जीने का मोह भंग हुआ
अपनी खुशियाँ अपने सुख दुःख
मुट्ठी में बंद किये सब कुछ
अरमानों की बलिवेदी पर
खुद की बली चढ़ा बैठी
जीते जी खुद को मिटा बैठी
दो शब्द प्यार के बोले होते
दिल के रहस्य खोले होते
जीवन में इतनी कटुता ना होती
वह हद को पार नहीं करती
सदा तुम्हारी ही रहती |


आशा

01 मई, 2010

बंधन प्रेम का

कुछ ऐसी बात करो मुझसे ,
जो मेरे मन पर छा जाये ,
आहत पक्षी की तरह ,
मुझको भी जीना आ जाये |
आज मुझे छोड़ कर ,
तुम कैसे जा पाओगे ,
यह है एक ऐसा बंधन ,
जिसको ना तोड़ पाओगे |
प्रेम पाश में बाँध कर मेरे ,
खींचते चले आओगे ,
मुझ से बच कर दूर बहुत ,
आखिर तुम कहाँ जाओगे |
मैंने जो प्यार दिया तुमको
उसे कैसे झुठलाओगे ,
मुझ को दंश प्रेम का दे कर ,
तुम कैसे जा पाओगे |
मेरे साथ बिठाये हर पल ,
छाया बन कर साथ चलेंगे ,
यह निस्वार्थ प्रेम का बंधन ,
कैसे उसे भुला पाओगे |


आशा

30 अप्रैल, 2010

जीने की ललक अभी बाकी है

स्वत्व पर मेरे पर्दा डाला ,
मुझको अपने जैसा ढाला ,
बातों ही बातों में मेरा ,
मन बहलाना चाहा ,
स्वावलम्बी ना होने दिया ,
अपने ढंग से जीने न दिया |
तुमने जो खुशी चाही मुझसे ,
उसमें खुद को भुलाने लगी ,
अपना मन बहलाने लगी ,
अपना अस्तित्व भूल बैठी ,
मन की खुशियाँ मुझ से रूठीं ,
मैं तुम में ही खोने लगी |
आखिर तुम हो कौन ?
जो मेरे दिल में समाते गए ,
मुझको अपना बनाते गए ,
प्रगाढ़ प्रेम का रंग बना ,
उसमें मुझे डुबोते गए |
पर मैं ऊब चुकी हूँ अब ,
तुम्हारी इन बातों से ,
ना खेलो जज़बातों से,
मुझको खुद ही जी लेने दो ,
कठपुतली ना बनने दो ,
उम्र नहीं रुक पाती है ,
जीने की ललक अभी बाकी है |


आशा

29 अप्रैल, 2010

ख़ुद ही कविता बन जाओगी

मैंने देखा जब से तुम को ,
कुछ लिखने का मन करता है ,
तुम सामने बैठी रहो ,
एक कविता बनती जायेगी ,
सुंदरता का गहरा रंग ,
कविता में समाता जायेगा ,
सौंदर्य बोध जागृत होगा ,
मन में घर करता जायेगा ,
सौंदर्य के सभी आयाम ,
कविता में आते जायेंगे ,
कविता बढ़ती जायेगी ,
कलम न रुकने पायेगी ,
ऐसा लगता है मुझ को ,
मैं अपनी सुधबुध खो बैठूँगा ,
अधिक समय यदि तुम ठहरीं ,
खुद ही कविता बन जाओगी |


आशा

28 अप्रैल, 2010

तपिश

खत चाहे जितने भी जला दो ,
मुझको न भूल पाओगे ,
अपनी चाहत को भी तुम ,
कैसे झुठला पाओगे ,
मेरी चाहत की ऊँचाई ,
तुम कभी न छू पाओगे ,
उस आग की तपिश में ,
खुद ही झुलसते जाओगे |

आशा

27 अप्रैल, 2010

बंधन जाति का

खिली कली बीता बचपन
जाने कब अनजाने में
दी दस्तक दरवाज़े पर
यौवन की प्रथम सीढ़ी पर
जैसे ही कदम पड़े उसके
आँखों ने छलकाया यौवन
हर एक अदा में सम्मोहन
वह दिल में जगह बना बैठी
सजनी बन सपने में आ बैठी |
धीरे-धीरे कब प्यार हुआ
साथ जीने मरने का
जाने कब इकरार हुआ
छिप-छिप कर आना उसका
मन के सारे भेद बता कर
जी भर कर हँसना उसका
निश्छल मन चंचल चितवन
आनन पर लहराती काकुल
मन में कर देती हलचल |
जब विवाह तक आना चाहा
जाति प्रथा का पड़ा तमाचा
ध्वस्त हुए सारे सपने
कोई भी नहीं हुए अपने |
माँ बाबा ने उसे बुला कर
मुझसे दूर उसे ले जा कर
एक जाति बंधु से ब्याह रचाया
उसका मुझसे नाता तुड़वाया
मुझ में ऐसी क्या कमियाँ थीं
मै तो समझ नहीं पाया |
जाति में मन चाहा वर
भाग्यशाली ही पाता है
अक्सर यह लाभ
कुपात्र ही ले जाता है
वह थोड़ा बहुत कमाता था
बहुत व्यस्त है दर्शाता था
ऐसा भी कोई गुणी नहीं था
जिस कारण अकड़ा जाता था
सारी हदें पार करता था
बेबसी पर खुश होता था |
पहले तो वह झुकती जाती थी
हर बार पिता की इज्जत का
ख्याल मन में लाती थी
फिर घुट-घुट कर जीना सीख लिया
समाज से डरना सीख लिया |
मैं भी दस-दस आँसू रोया
फिर दुनियादारी में खोया
एक लम्बा अरसा बीत गया
यादों को मन में दफना कर
उन पर पर्दा डाल दिया
अब जीवन चलता पटरी पर
कहीं नहीं भटकता पल भर |
तेज हवा की आँधी सी वह
मेरे सामने खड़ी हुई थी
बहुत उदास आँखों में आँसू
खंडित प्रतिमा सी लग रही थी
उसके आँसू देख न पाया
जज्बातों को बस में करके
उसका हाल पूछना चाहा
पहले कुछ न बोल पाई
फिर धीरे से प्रतिक्रिया आई
ऐसा कैसा जाति का बंधन
जो बेमेल विवाह का कारक बन
जीने की ललक मिटा देता
कितनों का जीवन हर लेता |
जब उसकी व्यथा कथा को जाना
मनोदशा को पहचाना
नफरत से मन भर आया
विद्रोही मन उग्र हुआ
जाति प्रथा को जी भर कोसा |


आशा

26 अप्रैल, 2010

क्षणिका

ये आँसू सरल नहीं होते ,
आँखें तक नम नहीं करते ,
इनके लिये सौहार्द्र चाहिये ,
मन की पीड़ा का ताप चाहिये ,
तभी कहीं ये बह पायेगे ,
बाढ़ नदी की बन पायेंगे|

आशा