03 जुलाई, 2010

मेरा जीवन सागर जैसा

मेरा जीवन सागर जैसा ,
और उन्माद सागर उर्मी सा ,
सागर की उथलपुथल ,
अनेक आपदाएं लाती है ,
जो भी फंस जाए उसमे ,
अपनी जान से जाता है ,
सागर शांत जब होता है ,
आकर्षित सब को करता है |
मुझ में जब उफान आता है ,
असंयत ब्यवहार हो जाता है ,
क्या गलत किया मैने ,
अहसास बाद में होता है ,
पर पहले इसके ,
जाने कितना समय ,
व्यर्थ हो जाता है|
क्षतिपूर्ति नहीं होती ,
मन अशांत हो जाता है ,
केवल इतना ही नहीं होता ,
हीन भावना भी बढ़ती है ,
फिर जिंदगी में असफलता की ,
एक और कड़ी जुड़ जाती है |
जब कभी मुड़ कर देखता हूं ,
आत्म विश्लेषण भी करता हूं ,
बहुत देर हो जाती है ,
बाजी हाथ से निकल जाती है |
असंयत ब्यवहार मेरा ,
दूसरों को दुखी करता है ,
कोइ जाने या न जाने ,
मैं भी दुखी होता हूं |
हर बार यही सोचता हूं ,
यदि खुद में परिवर्तन ला पाऊं ,
सागर की तरह शांत हो जाऊं ,
तब कितना अच्छा जीवन होगा ,
कोइ न मेरा बैरी होगा |
यह सब मैं जानता हूं ,
समझता भी हूं ,
पर कमीं है आत्मसंयम की,
भावनाएं अनियंत्रित हो जाती हैं ,
बड़ी बड़ी लहरों की तरह ,
बहुत उत्पात मचा जाती हैं ,
समय हाथ से निकल जाता है ,
मुठ्ठी में भरी रेत, की तरह फिसल जाता है ,
सोचता हूं अब मैं ,
किसी ऐसे की शरण में जाऊं ,
सही शिक्षा यदि पाऊं ,
मेरा अशांत मन ,
फिर से शांत हो जाएगा ,
आध्यात्म की ओर झुक जाएगा
आशा

02 जुलाई, 2010

एकाकी जीवन मेरा

छोटीसी जिंदगी होती है
कई अनुभवों से भरी हुई
जैसे एकाकी जीवन मेरा
पेड़ से टूटे पत्ते सा
वह जीवन ही क्या
सुख ने ना झंका जिस में
दुखों ने किनारा न किया
केवल असंतोष को जन्म दिया |
जब दुःख परचम फहराता है
मन बहुत खिन्न हो जाता है
हर समय का अकेलापन
बहुत उदास कर जाता है |
परेशानी हावी हो जाती है
नीरस जिंदगी हो जाती है
अकेलेपन से बचना चाहती है
खालीपन भरना चाहती है |
कई बार आंसूं भी
नदी में उफान की तरह आते हैं
झरने की तरह झर झर बहते जाते हैं
और अधिक उदास कर जाते है
मैं अकेला ही निकला हूं
ऐसी जिंदगी की तलाश में
जहां दुःख का साया ना हो
यदि आंसू आएं भी तो खुशी के हों
और साथी हो तो ऐसा हो
जब भी मेरे साथ चले
मेरे एकाकी जीवन मैं
रंग खुशियों के भर दे |
आशा

01 जुलाई, 2010

दर्पण

दर्पण के सामने जो भी आया
उसने उसका रूप दिखाया
वह दांये को बांया,बाएं को दांया
 दिखलाता अवश्य   है
फिर भी सब कुछ
दिख ही जाता है |
चेहरे पर जो भी भाव आए
स्पष्ट दिखाई दे जाते हैं
सुख हो  या दुःख 
शीशे में दिख ही जाते हैं |
मुखोटा यदि चेहरे पर हो
भाव कहीं छिप जाते हैं
जैसे ही वह हटता है
वे साफ उभर कर आते हैं |
जब रंग मंच का उठता है पर्दा
नाटक का प्रत्येक पात्र
अभिनय कर कुछ दर्शाता है
कलाकार का असली चेहरा
रंग मंच पर खो जाता है
पात्र यदि भाव प्रवण न हो
नाटक नीरस हो जाता है |
फिर से दर्पण में निहार कर
खुद को जब खोजना चाहे
मन में छिपे दर्द को उसके
दर्पण भी न पहचान पाए
 दिखाई देता है चेहरा उसमें
पर मन में छिपे भावों को
वह भी नकार देता है
विष कन्या सुन्दर दिखती थी
पर रोम रोम में भरा विष
दर्पण नहीं देख पाता था
वह तो बाह्य सुंदरता का ही
आकलन कर पाता था
सुंदरता चार चाँद लगाती है
ब्यक्तित्व को निखारती है
कई तरह के प्रसाधनों से
यदि कोई रूप सवारता है
दर्पण में निहारता है
वह सुन्दर भी दिखने लगता है
यदि कोइ कमी रह जाए
दर्पण तुरंत पकड़ लेता है |
सब सुन्दर नहीं होते
यह दर्पण भी समझता है
यदि सारे सुन्दर चहरे
दर्पण के सामने आएंगे
तो बेचारे कुरूप कहाँ जाएंगे |
आशा

मैं तो एक शमा हूं ,

मैं जलती हुई शमा हूं
यह कैसे समझाऊं परवानों को
तरह तरह की भाषा जिनकी
और जाति भी जुदा जुदा |
बिना बुलाये आते हैं
जब तक कुछ कहना चाहूं
जल कर राख हो जाते हैं
बदनाम मुझे कर जाते है |
मैं जलती हूं रोशनी के लिए
सब को राह दिखाने के लिए
एक रात का जीवन मेरा
नहीं चाहती अहित किसी का |
इसी लिए तो कहती हूँ
 यहां रात में क्या रखा है
छोटा सा जीवन है तुम्हारा
आज नहीं तो कल जाना है
जीवन का अंत तो होना है
दिन के प्रकाश में तुम जाओ
उन अतृप्त चिड़ियों के पास
जिनका भोजन यदि बन पाओ
तृप्त उन्हें तुम कर सकते हो
तब यह तो लोग न कह पाएगें,
मैं जलती हूं तुम्हारे लिए
रिझाती हूं तुम्हें
अपने पास आने के लिए |
तुम एक बात मेरी सुन लो
फिर से मेरे पास न आना
मरने की यदि चाहत ही हो
उन चिड़ियों के पास चले जाना
यदि मेरी बात रास न आए
तुमको यदि यह ना भाए
तब कहीं और चले जाना
फिर से बापस ना आना |
आशा

30 जून, 2010

रूढ़िवादिता

ना ही धोखा दिया ,
ना ही हम बेवफा हैं ,
हैं कुछ मजबूरियाँ ऐसी,
कि हम तुम से जुदा हैं |
समाज ने हम को ,
किसी तरह जीने न दिया ,
साथ रहने की चाहत को ,
समूल नष्ट किया ,
पर अब जो भी हो ,
समाज में परिवर्तन लाना होगा ,
रुढीवादी विचारधारा को ,
आईना दिखाना होगा ,
उसे जड़मूल से मिटाना होगा ,
आने वाली पीढ़ी भी वर्ना,
कुछ ना कर पायेगी,
इसी तरह यदि फँसी रही ,
कैसे आगे बढ़ पायेगी ,
हम तो बुज़दिल निकले ,
समाज से मोर्चा ले न सके ,
कुछ कारण ऐसे बने कि ,
अपनी बात पर टिक न सके ,
अब बेरंग ज़िंदगी जीते हैं ,
हर पल समाज को कोसते हैं ,
अपनी अगली पीढ़ी को ,
दूर ऐसे समाज से रखेंगे ,
समस्या तब कोई न होगी ,
स्वतंत्र विचारधारा होगी |


आशा

29 जून, 2010

परम सत्य

जन्म जीवन की सुबह है ,
तो मृत्यु शाम है,
शाम जब ढल जाती है ,
अंधकार हो जाता है ,
दिन का प्रकाश,
जाने कहाँ खो जाता है ,
जीवन साथ छोड़ जाता है ,
सब कुछ यहीं रह जाता है ,
मृत्यु शैया पर पड़ा हुआ वह ,
विचारों में खो जाता है ,
कई बातें याद आती हैं ,
कभी पश्चाताप भी होता है ,
मन में भय भी उभरता है ,
लोभी का लोभ यदि ना छूटे ,
वह विचलित भी होता है ,
सत्कर्म हो या दुष्कर्म ,
सभी यहीं छूट जाते हैं ,
जाने वाले अपने निशान छोड़ जाते हैं ,
दुष्कर्मों की गहरी खाई ,
समय के साथ पट जाती है ,
यादें सत्कर्मों की ,
लम्बे समय तक रहती हैं ,
जन्म और मृत्यु शाश्वत सत्य हैं .
है जन्म जीवन का प्रारम्भ ,
तो मृत्यु अंतिम छोर है ,
सब जानते हुए भी ,
लालसा जीने की रहती है ,
यदि सचेत न हुए ,
आत्मा को शांति नहीं मिलती ,
सच है परम सत्य यही है ,
मृत्यु ही परम शांति है ,
जीवन की विश्रान्ति है |


आशा

28 जून, 2010

पाप और पुण्य

होते सिक्के के दो पहलू
एक पाप और एक पुण्य
बाध्य करते सोचने को
है पाप क्या और पुण्य क्या
है यह अवधारणा
विकसित मस्तिष्क की |
निजी स्वार्थ हित धन देना
क्या पाप नहीं होता ?
पर मंदिर में दिया दान
कैसे पुण्य हो जाता |
जहाँ किसी का हित होता
वही पुण्य निहित होता
जब पश्चाताप किसी को होता
उसके लिए वही पाप होता
आवश्यकता से अधिक संचय
आता पाप की श्रेणी में
लोक हित के लिए संचय
महान कार्य कहा जाता |
यदि पशु की बलि देते हैं
कहलाता देवी का प्रसाद
पर है पशु वध हिंसा ही
यह पाप भी कहलाती है |
है दोनों में अंतर क्या
यह कठिन प्रश्न सा लगता है |
पाप है क्यापुण्य क्या ?
दृष्टिकोण है सब का अपना
जो जैसा सोचता है
वैसा ही उसको लगता |


आशा