09 जुलाई, 2010

इन्कलाब

बढ़ती मंहगाई और बेरोजगारी ने ,
जीवन का सूरज अस्त किया ,
पहले ही गरीबी कम न थी ,
कर्ज ने और बेहाल किया ,
मन की बेचैनी बदने लगी ,
कैसे कर्ज चुक पायेगा ,
जब कोइ रास्ता नजर नहीं आया ,
आत्महत्या ही विकल्प पाया ,
धनी उद्धयोगपति और नेता ,
अपने पैर मजबूत कर रहे ,
एक से कई उद्योग किये ,
और अधिक धनवान हुए ,
है भृष्टाचार बढ़ता जाता ,
धन चाहे जहां से आए ,
चाहे किसी की जान जाए ,
पूर्ती भृष्टाचारी की हो जाए ,
सरकार कुछ नहीं कर पाती ,
उसमें बैठे लोग ,
केवल दिखावा करते हैं ,
वे बदलाव नहीं चाहते ,
स्वहित छोड़ नहीं पाते ,
गिर गई सरकार यदि ,
तो वे कहाँ जाएंगे ,
फिर से चुनाव जब होंगे ,
अपनी कुर्सी न बचा पाएंगे ,
मतलब सिद्ध यदि होता हो ,
सारे दल एक हो जाते हैं ,
संविधान में संशोधन कर ,
खुद ही लाभ उठाते हें ,
संविधान में भी केवल ,
सैद्धान्तिक बातें ही हैं ,
इसी का लाभ ,
ले जाते हैं नेता और भृष्टाचारी ,
जब जनता उठ खड़ी होगी ,
इन्कलाब बुलंद होगा ,
खलबली मच जाएगी ,
अराजक तत्व ,
कुछ तो छिप जाएंगे ,
और कुछ विदेश का रुख करेंगे ,
बदलाव जब आएगा ,
जनता को उसका हक मिल पाएगा ,
समानता और भाईचारे का ,
देश में साम्राज्य होगा ,
और एक सम्रद्ध समाज होगा |
आशा

08 जुलाई, 2010

नर्मदा उदगम स्थल

सैयाद्री पहाड़ियों से ,
हरी भरी वादी में ,
नर्मदा उदगम स्थल देखा ,
ऊँची पहाड़ियों से ,
जल धाराओं का आना देखा ,
जब पड़ी प्रथम किरण सूरज की ,
सुंदरता को बढते देखा ,
प्रकृति नटी के इस वैवभ को ,
दिगदिगंत में फैलते देखा ,
यह अतुलनीय उपहार सृष्टि का ,
है मन मोहक श्रंगार धारा का ,
दृष्टि जहां तक जाती है ,
उन पहाड़ियों में खो जाती है ,
धवल दूध सी धाराएं ,
कई मार्गों से आती हें
सब एकत्र जब हो जाती हैं
कल कल स्वर कर बहती हें
बहते जल की स्वर लहरी ,
गुंजन करती वादी में ,
अद्भुद संगीत मन में भरता है ,
मुझे प्रफुल्लित कर देता है ,
हल्की हल्की बारिश भी ,
वहां से हटने नहीं देती ,
मन स्पंदित कर देती है ,
रुकने को बाध्य कर देती है ,
बिताया गया वहां हर पल ,
कई बार खींचता मुझको ,
मन करता है घंटों अपलक ,
निहारती रहूं उसको ,
वह हरियाली और जल की धाराएं ,
अपनी आँखों में भर लूं ,
फिर जब भी आँखें बंद करूं ,
हर दृश्य साकार करूं |
आशा


,

07 जुलाई, 2010

है जिंदगी इक शमा की तरह

है जिंदगी इक शमा की तरह ,
जैसे जैसे आगे बढ़ती है ,
गति साँसों की धीमी होती है ,
शमा तो रात भर जलती है ,
सुबह होते ही गुल हो जाती है ,
धीरे धीरे जलते जलते ,
रोशनी कम होती जाती है ,
वह तो जलती है, पर हित के लिए ,
परवाने उस पर मर मिटते हैं ,
जब कोई लौ से टकराता है ,
उसे बुझाना चाहता है ,
शमा सतर्क हो जाती है ,
बुझने से बच जाती है ,
जीवन की चाह उसे,
गुल होने नहीं देती ,
जिंदगी भी कुछ ऐसी ही है ,
कई दौर से गुजरती है ,
कभी परोपकारी होती है ,
कभी स्वार्थी भी हो जाती है ,
बुझने के पहले ,
चंद लम्हों के लिए ,
चेतना लौट कर आती है ,
अंधकार फिर छा जाता है ,
सांसें वहीँ रुक जाती हैं ,
परोपकार साथ देता है ,
स्वार्थ यहीं रह जाता है ,
वैसे तो सच यह है ,
थोड़े दिन परोपकार याद रहते हें ,
फिर समय के साथ धुंधला जाते हें ,
मनुष्य तो खाली हाथ आता है ,
और खाली हाथ ही जाता है |
आशा

06 जुलाई, 2010

मैं तुम्हें पा कर रहूंगी

इस चमक दमक कि दुनिया में ,
तुम्हारी तलाश मुझे रहती है ,
क्यूँ फीके रंगों की बात करूं ,
समा रंगीन बर्बाद करूं ,
हर सुबह तुम्ही से होती है ,
हर शाम तुम्हीं से होती है ,
मैं शमा जलाए बैठी हूं ,
हर रात तुम्ही में खोती है ,
केवल एक झलक पाने को ,
मन की प्यास बुझाने को ,
कितने ही यत्न किये मैने ,
पर कभी सफलता पा न सकी ,
इस दूरी को मिटा न सकी ,
सारा बैभव छोड़ दिया ,
दुनिया से खुद को दूर किया ,
एकाग्र मना मैं सोच रही ,
तुम जैसा खुद को ढाल रही ,
कभी तो मन पसीजेगा ,
अपनी ओर आकृष्ट करेगा ,
यह तो एक ऐसा बंधन है ,
जिसे समझना मुश्किल है ,
अदृश्य नियंता ने जाने कब ,
मुझको इसका भान कराया ,
तुम्हीं को पाने के लिए ,
बंधन प्रगाढ़ बनाने के लिए ,
मैं सारी हदें पार करूंगी ,
तलाश मेरी जब पूरी होगी ,
पूरे दिल से सत्कार करूंगी ,
कितनी भी कठिनाई आए ,
मैं तुम्हें पा कर ही रहूंगी |
आशा

05 जुलाई, 2010

कल भारत बंद है

चिंकी पिंकी लो यह पर्चा ,
जल्दी से सौदा ले आओ ,
शायद तुमको पता नहीं ,
कल बाजार बंद है |
सुनो ज़रा अपने पापा को भी ,
मोबाइल तुम कर देना ,
आज जरा जल्दी आ जाएं ,
कल की भी अर्जी दे आएं ,
कल जाना न हो पाएगा ,
गाड़ी के पहिये थम जाएंगे ,
कल तो भारत बंद है |
एक थाली भी चुनना है ,
मंहगाई का विरोध करना है ,
पर टूटी थाली ही चुनना ,
नई नहीं कोइ चुनना |
बजा बजा कर थाली को
तो तोड़ा जा सकता है ,
पर कमर तोड़ मंहगाई का ,
क्या कोइ हल निकल सकता है ?
हर बार बंद होते हैं ,
वे सफल भी होते है ,
हर बार यही दावा होता है ,
पर असर उल्टा होता है,
मंहगाई और बढ़ती जाती है |
इस बार न जाने क्या होगा ,
पर दिन भर के रुके कामों का,
जो भी हर्जाना होगा ,
उसकी भरपाई कौन करेगा ?
जब भी ऐसे बंद होते है ,
मंहगाई और बढा जाते है ,
आम आदमी ही पिसता है ,
पर वह यह नहीं समझता है |
आशा

04 जुलाई, 2010

सत्यता जीवन की

तरह तरह के लोग ,
आसपास जब होते हें ,
सब एक जैसे नहीं होते ,
कुछ विनम्र दीखते हैं ,
कई उग्र हो जाते है ,
कुछ ऐसे भी होते हैं ,
मीठी छुरी बने रहते हैं |
कटुता मन मैं विष भरती है
नहीं किसी को फलती है ,
सारी कटुता को बिसरा कर ,
क्षमा उसे यदि कर पाएं ,
अपनी गलती यदि खोजी ,
मन मैं पश्चाताप किया ,
हर क्षण खुशी से भर जाएगा ,
बीता कल हावी नहीं होगा ,
सारी कटुता बहा ले जाएगा ,
जीने का सही मार्ग यही है ,
मेरा अपना विश्वास यही है ,
भविष्य में क्या होना है ,
इसकी तो चिंता रहती है ,,
जीवन सफल बनाने की ,
मन में अभिलाषा रहती है ,
जो कल किया और आगे करना है ,
कठिन समस्या रहती है |
आगे बढने की प्रतिस्पर्धा में ,
बैचेनी भी रहती है ,
तटस्थ भाव से यदि देखें ,
भौतिकता सब कुछ नहीं होती ,
मन को संतोष नहीं देती ,
कुछ काम ऐसेभी है ,
जो मन को शांति देते हैं ,
इसी सकून को पाने के लिए ,
निष्काम भाव से जीना होगा ,
बैर भाव और कटुता को ,
खुद से दूर रखना होगा ,
प्रकृति हर नुकसान की ,
भरपाई तभी कर पाएगी ,
जब यह विश्वास जाग्रत होगा ,
सही मार्ग मिलता जाएगा ,
सफलता तुम्हारे कदम चूमेंगी ,
खुशियों से तुमको भर देंगी ,
सदा तुम्हारे साथ चलेगी ,
जीवन आनन्दित कर देगी
आशा

03 जुलाई, 2010

क्षितिज

है अनंत यह आसमान ,
इसका कोई छोर नहीं ,
दूर क्षितिज में जब भी देखा ,
धरती आकाश को मिलते देखा ,
जब अधिक पास जाना चाहा ,
उनको दोराहे पर पाया ,
यह तो केवल भ्रम ही है ,
कि क्षितिज दौनों को मिलाता है ,
सारी दुनिया यही समझती है ,
यह वही जगह है ,
जो पृथ्वी आकाश की मिलन स्थली है ,
जिंदगी का क्षितिज भी ,
न कोई खोज पाया ,
यह कल्पना से परे ,
एक उलझी हुई पहेली है ,
जिसने उसे हल करना चाहा ,
खुद को और उलझता पाया |
आशा