प्रातः से संध्या तक ,
वह तोड़ती पत्थर ,
भरी धुप मै भी नहीं रुकती ,
गति उसके हाथों की ,
श्रम कणों की अपूर्व आभा ,
दिखती मुख मंडल पर ,
फटे कपड़ों में लिपटी लाज की गठरी सी ,
लगती है किसी शिल्पी की अनोखी कृति सी ,
महनत से बना सुडौल तन
छन छन कर झांकता अल्हड़ यौवन,
सावला सलोना रंग ,
है वह अनजान अपने रूप से ,
वह भोलापन और आकर्षण ,
ओर सुराही सी गर्दन ,
जो सजी है ,कच्चे कांच के
मनकों की माला से ,
वह जैसे ही झुकती है तगारी उठाने के लिए ,
भंगिमा उसकी लगती प्रस्तर प्रतिमा सी ,
लगता है वह,
इतना वजन कैसे उठा पाएगी ,
तगारी रख सिर पर सरलता से ले जाती है ,
उसका मुखर होना हंसना ओर गुनगुनाना ,
विस्मृत कर देता है ,
फटे कपड़ों में छिपे तन को ,
लगने लगती है ,
स्वर्ग की किसी अप्सरा सी ,
आकृष्ट करती अपनी सुंदरता से ,
जो देन है प्रकृति नटी की ,
चाहता उसे अपलक निहारना ,
अप्रतिम सौन्दैर्यकी मिसाल समझ ,
उसके सम्मोहन में खो जाना ,
सरलता सहजता और भोलापन ,
भराहुआ है कूट कूट कर ,
मजदूरी मिलते ही चेहरे पर भाव,
संतुष्टि का आता है ,
सारी थकान भूल चल देती है डेरे पर ,
पुनः सुबह होते ही काम पर आ जाती है ,
महनत का दर्प चेहरे पर लिए ,
नया उत्साह मन में लिए |
आशा
07 अक्तूबर, 2010
06 अक्तूबर, 2010
तुम सामने क्यूँ नहीं आते
तुम सामने क्यूँ नहीं आते ,
मुंह छुपाए रहते हो ,
रातों की नींद ,
चुरा लेते हो ,
यह सजा रोज,
क्यूँ देते हो ,
सपनों में कई रंग ,
दिखाते रहते हो ,
होते ही सुबह ,
मैं व्यस्त हो जाती हूं ,
अपने आप में ,
खो जाती हूं ,
अक्सर भूल जाती हूं ,
क्या क्या देखा रात्रि में
कुछ बातें ही,
याद रह पाती हें ,
मिलते लोग ,
जो स्वप्नों में ,
दिन में भी ,
दिखाई देते हें ,
आदान प्रदान विचारों का ,
उनसे भी होजाता है ,
क्यूँ कि वे,
परिचित होते हें ,
पर तुम्हारे साथ,
ऐसा नहीं है ,
हर रात तुम आते हो ,
ना जाने हो कौन ,
मुझे बेचैन,
कर जाते हो ,
तुम्हें पहचान नहीं पाती ,
सोचती हूं ,
पर याद नहीं आते ,
किस बात की सजा ,
हर बार मुझे देते हो ,
हूं यदि दोषी तुम्हारी ,
तो सजा देने,
ही आजाओ ,
मुझे अपने स्वप्नों से ,
मुक्त तो कर जाओ ,
कभी लगता हैमुझे ,
अचेतन मन की ,
उपज तो नहीं ,
जिसमे कई स्मृतियां
दबी होती हें ,
जब रात्रि में होताहै ,
वह सक्रीय ,
विस्मृतियाँ होती सजीव ,
कहीं तुम उनमें से,
एक तो नहीं |
आशा
मुंह छुपाए रहते हो ,
रातों की नींद ,
चुरा लेते हो ,
यह सजा रोज,
क्यूँ देते हो ,
सपनों में कई रंग ,
दिखाते रहते हो ,
होते ही सुबह ,
मैं व्यस्त हो जाती हूं ,
अपने आप में ,
खो जाती हूं ,
अक्सर भूल जाती हूं ,
क्या क्या देखा रात्रि में
कुछ बातें ही,
याद रह पाती हें ,
मिलते लोग ,
जो स्वप्नों में ,
दिन में भी ,
दिखाई देते हें ,
आदान प्रदान विचारों का ,
उनसे भी होजाता है ,
क्यूँ कि वे,
परिचित होते हें ,
पर तुम्हारे साथ,
ऐसा नहीं है ,
हर रात तुम आते हो ,
ना जाने हो कौन ,
मुझे बेचैन,
कर जाते हो ,
तुम्हें पहचान नहीं पाती ,
सोचती हूं ,
पर याद नहीं आते ,
किस बात की सजा ,
हर बार मुझे देते हो ,
हूं यदि दोषी तुम्हारी ,
तो सजा देने,
ही आजाओ ,
मुझे अपने स्वप्नों से ,
मुक्त तो कर जाओ ,
कभी लगता हैमुझे ,
अचेतन मन की ,
उपज तो नहीं ,
जिसमे कई स्मृतियां
दबी होती हें ,
जब रात्रि में होताहै ,
वह सक्रीय ,
विस्मृतियाँ होती सजीव ,
कहीं तुम उनमें से,
एक तो नहीं |
आशा
05 अक्तूबर, 2010
कवि
रहता भावना के समुद्र में ,
जीता स्वप्नों की दुनिया में ,
गोते लगाता ,
ऊपर नीचे विचारों में ,
सुख हो या दुःख ,
उन्हें दिल से लगाये रहता ,
संबल ह्रदय का देता ,
कैसी भी छबी क्यूँ ना हो ,
ह्रदय में उतार लेता ,
शब्द जाल बुनता रहता ,
वह स्वयं नहीं जानता ,
जानना भी नहीं चाहता ,
वह कहाँ खोया रहता है ,
किस दुनिया में रहता है ,
जैसे स्वप्न रंगीन होते हें ,
तो कभी बेरंग भी ,
जीवन उसका भी होता है ,
कभी रंगीन,
तो कभी बे रंग ,
सामान्य बहुत कम रहता है ,
मन की बात किसी से,
कहना भी नहीं चाहता ,
किसी से बांटना भी नहीं चाहता ,
होती अधिक अकुलाहट जब ,
एकांत में घंटों ,
गुमसुम बैठा रहता है ,
अपने में खोया रहता है ,
एकाएक उठता है,
लिखना प्रारम्भ करता है ,
नयी कविता का ,
सृजन करता है ,
कुछ होती ऐसी ,
जो दिल को छू जाती हें ,
पर कुछ तो ,
सर पर से गुजर जाती हें ,
उसे समझना सरल नहीं ,
होता व्यक्तित्व दोहरा उसका ,
लेखन में कुछ झलकता है ,
और वास्तव में ,
कुछ और होता है ,
आकलन ऐसे व्यक्तित्व का ,
कैसे किया जाए ,
परिभाषित 'कवि 'शब्द को ,
कैसे किया जाए ||
आशा
जीता स्वप्नों की दुनिया में ,
गोते लगाता ,
ऊपर नीचे विचारों में ,
सुख हो या दुःख ,
उन्हें दिल से लगाये रहता ,
संबल ह्रदय का देता ,
कैसी भी छबी क्यूँ ना हो ,
ह्रदय में उतार लेता ,
शब्द जाल बुनता रहता ,
वह स्वयं नहीं जानता ,
जानना भी नहीं चाहता ,
वह कहाँ खोया रहता है ,
किस दुनिया में रहता है ,
जैसे स्वप्न रंगीन होते हें ,
तो कभी बेरंग भी ,
जीवन उसका भी होता है ,
कभी रंगीन,
तो कभी बे रंग ,
सामान्य बहुत कम रहता है ,
मन की बात किसी से,
कहना भी नहीं चाहता ,
किसी से बांटना भी नहीं चाहता ,
होती अधिक अकुलाहट जब ,
एकांत में घंटों ,
गुमसुम बैठा रहता है ,
अपने में खोया रहता है ,
एकाएक उठता है,
लिखना प्रारम्भ करता है ,
नयी कविता का ,
सृजन करता है ,
कुछ होती ऐसी ,
जो दिल को छू जाती हें ,
पर कुछ तो ,
सर पर से गुजर जाती हें ,
उसे समझना सरल नहीं ,
होता व्यक्तित्व दोहरा उसका ,
लेखन में कुछ झलकता है ,
और वास्तव में ,
कुछ और होता है ,
आकलन ऐसे व्यक्तित्व का ,
कैसे किया जाए ,
परिभाषित 'कवि 'शब्द को ,
कैसे किया जाए ||
आशा
04 अक्तूबर, 2010
सहनशीलता
सरल नहीं सहनशील होना ,
इच्छा शक्ति धरा सी होना ,
है धरती विशाल फिर भी ,
नहीं दूर अपने कर्त्तव्य से ,
सतत परिक्रमा करती सूर्य की ,
फिर भी नहीं थकती ,
देता है शीतलता उसे चंद्र ,
पर आदित्य से डरता है ,
जैसे ही उसे देखता है ,
जाने कहां छिप जाता है ,
गर्मी सर्दी और वर्षा ,
सभी सहन करती है ,
जन्म से आज तक ,
धधकती आग ,
हृदय में दबाए बैठी है ,
जलनिधि रखता,
सारा बोझ उसी पर ,
वहन उसे भी करती है ,
चांद सितारों की बातें की सबने ,
पर उसे किसी ने नहीं जाना ,
ना ही ठीक से पहचाना ,
जब कभी विचलित होती है ,
हल् चल उसमें भी होती है ,
ज्वालामुखी धधकते हें ,
क्रोध प्रदर्शित करते हें ,
वह अशांत सी हो जाती है ,
वह फिर यह सोच,
शांत हो जाती है ,
जो जीव यहां रहते हें ,
उसके आश्रय में पलते हें ,
आखिर उनका क्या होगा ?
उस जैसा धीर गंभीर होना ,
इतना सरल नहीं है ,
सहनशीलता उसकी अनोखी ,
जो अनुकरणीय है |
आशा |
इच्छा शक्ति धरा सी होना ,
है धरती विशाल फिर भी ,
नहीं दूर अपने कर्त्तव्य से ,
सतत परिक्रमा करती सूर्य की ,
फिर भी नहीं थकती ,
देता है शीतलता उसे चंद्र ,
पर आदित्य से डरता है ,
जैसे ही उसे देखता है ,
जाने कहां छिप जाता है ,
गर्मी सर्दी और वर्षा ,
सभी सहन करती है ,
जन्म से आज तक ,
धधकती आग ,
हृदय में दबाए बैठी है ,
जलनिधि रखता,
सारा बोझ उसी पर ,
वहन उसे भी करती है ,
चांद सितारों की बातें की सबने ,
पर उसे किसी ने नहीं जाना ,
ना ही ठीक से पहचाना ,
जब कभी विचलित होती है ,
हल् चल उसमें भी होती है ,
ज्वालामुखी धधकते हें ,
क्रोध प्रदर्शित करते हें ,
वह अशांत सी हो जाती है ,
वह फिर यह सोच,
शांत हो जाती है ,
जो जीव यहां रहते हें ,
उसके आश्रय में पलते हें ,
आखिर उनका क्या होगा ?
उस जैसा धीर गंभीर होना ,
इतना सरल नहीं है ,
सहनशीलता उसकी अनोखी ,
जो अनुकरणीय है |
आशा |
03 अक्तूबर, 2010
वह नहीं जानता ,
अनेक दर्द दिल में छिपाए उसने ,
है ऐसा क्या उन में ,
बांटने से भी डरता है ,
उन पर चर्चा,
से भी हिचकता है ,
कई बार लगता है ,
बांटने से दिल का बोझ ,
किसी हद तक कम हो सकता है ,
पर यदि वह ना चाहे ,
कोई क्या कर सकता है ,
शायद वह नहींसीख पाया ,
मिलजुल कर रहने की आदत ,
नहीं पहचान पाया ,
जीवन में उसकी जरूरत ,
यही कारण दीखता है ,
किसी से साँझा नही करता ,
खुद भी अकेला रहता है ,
गम के दरिया में बहता रहता है ,
उदासी पीछा नहीं छोडती ,
वीरान जिंदगी लगती है ,
आवश्कता मित्रों की ,
महत्व उनके होने का ,
जब वह समझ पाएगा ,
विचारों का सांझा करेगा ,
तब बोझ दिल पर ना होगा ,
मित्रों में बात जाएगा ,
वह प्रसन्न रह पाएगा |
आशा
है ऐसा क्या उन में ,
बांटने से भी डरता है ,
उन पर चर्चा,
से भी हिचकता है ,
कई बार लगता है ,
बांटने से दिल का बोझ ,
किसी हद तक कम हो सकता है ,
पर यदि वह ना चाहे ,
कोई क्या कर सकता है ,
शायद वह नहींसीख पाया ,
मिलजुल कर रहने की आदत ,
नहीं पहचान पाया ,
जीवन में उसकी जरूरत ,
यही कारण दीखता है ,
किसी से साँझा नही करता ,
खुद भी अकेला रहता है ,
गम के दरिया में बहता रहता है ,
उदासी पीछा नहीं छोडती ,
वीरान जिंदगी लगती है ,
आवश्कता मित्रों की ,
महत्व उनके होने का ,
जब वह समझ पाएगा ,
विचारों का सांझा करेगा ,
तब बोझ दिल पर ना होगा ,
मित्रों में बात जाएगा ,
वह प्रसन्न रह पाएगा |
आशा
02 अक्तूबर, 2010
हें हम सब एक
अँग्रेज जब होने लगा कमजोर ,
कुछ नेताओं से हाथ मिलाया ,
टुकड़े देश के करवाए ,
बीज ऐसे बोए नफरत के ,
बड़े हुए, वृक्ष बने कटीले ,
काँटों से दिल छलनी कर गए ,
जब बटवारा होने को था ,
खेली गई खूनी होली ,
परिवार अनेकों उजड गए,
कई बच्चे अनाथ हो गए ,
मन मैं बैर ऐसा पनपा ,
पीछा अब तक छूट न पाया ,
चाहे कोई बहाना हो ,
देश अशांत होता आया ,
जिनमे समझ है पढेलिखे हें ,
वे तक जान नहीं पाए ,
किस धर्म में है ऐसा ,
मनुष्य मनुष्य का,
दुश्मन होजाए ,
होता है धर्म व्वाक्तिगत ,
है व्यर्थ उसे मुद्दा बनाना ,
वह किस धर्म को मानता है ,
चेहरे पर लिखा नहीं है ,
जीवन की समाप्ति पर ,
शरीर नष्ट हो जाता है ,
होता विलीन पञ्च तत्त्व में ,
केवल अच्छे कर्म ,
याद किये जाते हें ,
वह था किस धर्म का ,
चर्चा नहीं होती ,
जमीन में दफनाया जाए ,
या अग्निदाह किया जाए ,
या बहा दिया जाए ,
किसी जल धारा में ,
क्या फर्क पडता है ,
जाने वाला तो चला गया ,
यह संसार छोड़ गया ,
फिर जीते जी क्यूँ ,
हों हंगामे इतने ,
भाई भाई न रहे ,
दुश्मनी पले हर ओर फैले ,
हो जब भी आवश्यकता ,
एक जुट होने की ,
नासमझी आड़े ना आए ,
देश के हर कौने से,
आवाज उठे सब कहें ,
हें हम सब एक ,
है देश हमारा एक |
आशा
कुछ नेताओं से हाथ मिलाया ,
टुकड़े देश के करवाए ,
बीज ऐसे बोए नफरत के ,
बड़े हुए, वृक्ष बने कटीले ,
काँटों से दिल छलनी कर गए ,
जब बटवारा होने को था ,
खेली गई खूनी होली ,
परिवार अनेकों उजड गए,
कई बच्चे अनाथ हो गए ,
मन मैं बैर ऐसा पनपा ,
पीछा अब तक छूट न पाया ,
चाहे कोई बहाना हो ,
देश अशांत होता आया ,
जिनमे समझ है पढेलिखे हें ,
वे तक जान नहीं पाए ,
किस धर्म में है ऐसा ,
मनुष्य मनुष्य का,
दुश्मन होजाए ,
होता है धर्म व्वाक्तिगत ,
है व्यर्थ उसे मुद्दा बनाना ,
वह किस धर्म को मानता है ,
चेहरे पर लिखा नहीं है ,
जीवन की समाप्ति पर ,
शरीर नष्ट हो जाता है ,
होता विलीन पञ्च तत्त्व में ,
केवल अच्छे कर्म ,
याद किये जाते हें ,
वह था किस धर्म का ,
चर्चा नहीं होती ,
जमीन में दफनाया जाए ,
या अग्निदाह किया जाए ,
या बहा दिया जाए ,
किसी जल धारा में ,
क्या फर्क पडता है ,
जाने वाला तो चला गया ,
यह संसार छोड़ गया ,
फिर जीते जी क्यूँ ,
हों हंगामे इतने ,
भाई भाई न रहे ,
दुश्मनी पले हर ओर फैले ,
हो जब भी आवश्यकता ,
एक जुट होने की ,
नासमझी आड़े ना आए ,
देश के हर कौने से,
आवाज उठे सब कहें ,
हें हम सब एक ,
है देश हमारा एक |
आशा
30 सितंबर, 2010
घुमक्कड़
हूं एक घुमक्कड़ ,
घूमना अच्छा लगता है ,
घना जंगल बहता झरना ,
घंटों वहाँ बैठे रहना ,
मन को शान्ति देता है ,
देखा जब दूरस्थ ग्राम ,
कच्ची पगडंडी पहुँच मार्ग ,
छोटे २ माटी के मकान ,
इच्छा हुई वहां जाऊं ,
अधनंगे खेलते बच्चे ,
रिक्त पड़ा शाला परिसर ,
साम्राज्य पंक का चारों ओर ,
निष्क्रीय बैठे शिक्षक ,
है कैसी दुर्दशा शिक्षा की ,
मन दुखित हुआ
और चल दिया ,
किसी नई जगह की तलाश में ,
जा पहुँचा कंजरों के गाँव में ,
चोरी डाका जिनका काम ,
पड़ने लिखने से दूर बहुत ,
अपना धंधा करते पसन्द ,
भय भीत सदा ही रहते हें ,
बच्चों को शाला भेजने में ,
होता वह दिन सौभाग्य का ,
जब कोई बच्चा शाला आता ,
है श्याम पट कोरा ,
ऐसा अवसर कभी न आया ,
कि 'आ ' भी कभी लिखा जाता ,
कोई नोनिहाल पढ़ने आता ,
कदम मेरे थकने लगते हें ,
फिर भी बढ़ता जाता हूं ,
कुछ नया देखने की चाह में ,
आ गया हूं नए ग्राम में ,
है दृश्य बड़ा मनोहर ,
लिपे पुते कच्चे मकान ,
बने हुए मांडने जिन पर ,
है यह आदिवासियों का ग्राम ,
हुआ बहुत शोषण उनका भी ,
पर अपने ढंग से जीते हें ,
शाम ढले सभी एकत्र हो ,
मनोरंजन में डूब जाते हैं ,
गायन वादन और नर्तन ,
थिरकते कदम ताल पर ,
मन उनमे खो जाता है ,
उनमे रमता जाता है ,
रुकना मानसिकता नहीं मेरी ,
एक ओर चल देता हूं ,
दूधिया प्रकाश में नहाता ,
एक शहर दिखाई देता है ,
जीवन है गतिमान यहाँ ,
बड़ी बड़ी अट्टालिकाएं ,
शरण स्थली लोगों की ,
हें सभी व्यस्त अपने अपने में ,
पर पास की झोपड पट्टी में ,
कई अपराध जन्म लेते हें ,
पनपते हें पलते हें ,
यह देख मन उचटने लगता है ,
फिरसे चलना चाहता हूं ,
कल कल करते जल प्रपात तक ,
बैठ जहां प्रकृति के आंचल में ,
फिरसे मनन करू उन सब पर ,
जो जैसे हें वही रहेंगे ,
या कोई परिवर्तन होगा ,
यदि शिक्षा पर ध्यान दिया जाए ,
शायद कोई परिवर्तन आए |
आशा
घूमना अच्छा लगता है ,
घना जंगल बहता झरना ,
घंटों वहाँ बैठे रहना ,
मन को शान्ति देता है ,
देखा जब दूरस्थ ग्राम ,
कच्ची पगडंडी पहुँच मार्ग ,
छोटे २ माटी के मकान ,
इच्छा हुई वहां जाऊं ,
अधनंगे खेलते बच्चे ,
रिक्त पड़ा शाला परिसर ,
साम्राज्य पंक का चारों ओर ,
निष्क्रीय बैठे शिक्षक ,
है कैसी दुर्दशा शिक्षा की ,
मन दुखित हुआ
और चल दिया ,
किसी नई जगह की तलाश में ,
जा पहुँचा कंजरों के गाँव में ,
चोरी डाका जिनका काम ,
पड़ने लिखने से दूर बहुत ,
अपना धंधा करते पसन्द ,
भय भीत सदा ही रहते हें ,
बच्चों को शाला भेजने में ,
होता वह दिन सौभाग्य का ,
जब कोई बच्चा शाला आता ,
है श्याम पट कोरा ,
ऐसा अवसर कभी न आया ,
कि 'आ ' भी कभी लिखा जाता ,
कोई नोनिहाल पढ़ने आता ,
कदम मेरे थकने लगते हें ,
फिर भी बढ़ता जाता हूं ,
कुछ नया देखने की चाह में ,
आ गया हूं नए ग्राम में ,
है दृश्य बड़ा मनोहर ,
लिपे पुते कच्चे मकान ,
बने हुए मांडने जिन पर ,
है यह आदिवासियों का ग्राम ,
हुआ बहुत शोषण उनका भी ,
पर अपने ढंग से जीते हें ,
शाम ढले सभी एकत्र हो ,
मनोरंजन में डूब जाते हैं ,
गायन वादन और नर्तन ,
थिरकते कदम ताल पर ,
मन उनमे खो जाता है ,
उनमे रमता जाता है ,
रुकना मानसिकता नहीं मेरी ,
एक ओर चल देता हूं ,
दूधिया प्रकाश में नहाता ,
एक शहर दिखाई देता है ,
जीवन है गतिमान यहाँ ,
बड़ी बड़ी अट्टालिकाएं ,
शरण स्थली लोगों की ,
हें सभी व्यस्त अपने अपने में ,
पर पास की झोपड पट्टी में ,
कई अपराध जन्म लेते हें ,
पनपते हें पलते हें ,
यह देख मन उचटने लगता है ,
फिरसे चलना चाहता हूं ,
कल कल करते जल प्रपात तक ,
बैठ जहां प्रकृति के आंचल में ,
फिरसे मनन करू उन सब पर ,
जो जैसे हें वही रहेंगे ,
या कोई परिवर्तन होगा ,
यदि शिक्षा पर ध्यान दिया जाए ,
शायद कोई परिवर्तन आए |
आशा
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