26 नवंबर, 2010

जन्म लिया था साथ-साथ

जन्म लिया था साथ-साथ
खेले कूदे बड़े हुए
वय वृद्धि के साथ-साथ
राम राम न रहा
रहीम रहीम न हुआ
ऐसा ज़हर मज़हब का फैला
दोनों डूबे मज़हब में
दिलों में दूरी ऐसी हुई
दोस्ती में दरार पड़ गयी
नफरत के बीज ऐसे पनपे
जमीन में भी दरार पड़ गयी
दिलों के बीच की खाई
गहरी इतनी हो गयी
दो देशों के बीच
सीमा रेखा तक खिंच गयी
नफरत की नींव इतनी गहरी थी
हुआ बँटवारा दो मुल्कों में
खाई और गहरी हुई
अब उसे पाटना मुश्किल है
हो चाहे जितनी कोशिश
कोई कितने भी जतन करे
गहराई खाई की बढ़ती जाती है
हर ओर जहर के बढ़ते कदम
कोई रोक नहीं पाता
जब तक सुलह नहीं होती
आतंक का खौफ न जा पाता
हर बार नई कहानी होती है
भयाक्रांत जनता होती है
जब भी बीज से पेड़ उगेगा
कड़वाहट से भरा होगा
काँटों की कमी नहीं होगी
दिलों में नफरत और बढ़ेगी
यदि हो विकसित सहनशीलता
हृदय होगा परिवर्तित
एकता फिर से जन्म लेगी
राम रहीम को एक करेगी |


आशा

क्षणिका

मैंने तो बस सच कहा है ,
लाग लपेट उसमे ना कोई ,
इस पर भी यदि बुरा मानो ,
सोच लो कुछ कहा ही नहीं |

आशा

25 नवंबर, 2010

कोई नहीं जान पाया

चंचल चपला और बिंदास
दिखाई देती सदा ,
पर है इसमें ,
कितनी सच्चाई ,
यह भी कभी
देखा होता ,
थी भोली भाली,
सुंदर बाला ,
कब बड़ी हुई ,
जान न पाई ,
जानें कितनी वर्जनाएं ,
या समझाने की कोशिश ,
लड़कों से
बराबरी कैसी ,
लड़की हो लड़की सी रहो ,
मन में होती
उथल पुथल ,
अक्सर सालने लगी उसे ,
जो है जैसी भी है ,
क्या यह पर्याप्त नहीं है ?
निर्वाह कैसे होगा ,
ससुराल में ,
यही हजारों बार सुना,
ऐसी अनेक बातों का ,
मन पर विपरीत ,
प्रभाव हुआ ,
अनजाने भय ,
का बोध हुआ ,
मानो ससुराल नहीं ,
कैदखाना हुआ ,
सारे कोमल भाव दब गए ,
बाचाल उद्दण्ड ,
स्वभाव हुआ ,
क्या यही सब ,
संस्कारों से पाया ?
लगता यह दोष नहीं
संस्कारों का ,
या माता पिता के
पालन पोषण का ,
समाज में
कुछ देखा सुना ,
अनुभवों ने
बहुत कुछ सिखा दिया ,
अब जो दीखता है
वही सत्य लगता है ,
है क्या वह सच में
चंचल और बिंदास ,
एकांत पलों में ,
जब सोचती है ,
आँखें नम हो जाती हैं ,
वह और व्यथित,
हो जाती है ,
वर्जनाओं के झूले में
उसे सदा
झूलते पाया ,
है वह क्या ?
एक चंचल चपला सी ,
या शांत सुघड़ बाला सी ,
यह कोई ,
नहीं जान पाया |


आशा

23 नवंबर, 2010

है यह जीवन पान फूल सा

है यह जीवन पान फूल सा ,
हवा लगे मुरझा जाता ,
कैसे इसे सँवारा जाये ,
यह भी नहीं ज्ञात होता ,
हर मोड़ पर झटके लगते हैं ,
उर में दर्द उभरता है ,
हो जाती जब सीमा पार ,
हो जातीं बाधाएं पार ,
तभी मुक्ति मिलती है ,
आत्मा बंधन मुक्त होती है ,
इससे अनजानी नहीं हूँ ,
फिर भी मोह नहीं जाता ,
जीवन और उलझता जाता ,
इस सत्य से कब मुँह मोड़ा ,
क्या सही क्या गलत किया ,
गहन दृष्टि भी डाली ,
विचार मंथन भी किया ,
पर हल कुछ भी ना निकला ,
फिर भी इसकी देखरेख ,
बहुत कठिन लगती है ,
पान फूल से जीवन को ,
जाने कैसे नजर लग जाती है ,
हर झटका अब तक पार किया ,
कोई और उपाय न दिखाई दिया ,
कब आशा निराशा में बदली ,
इस तक का भी ना भान हुआ ,
आगे क्या होगा पता नहीं ,
बस दूर सच्चाई दिखती है ,
है यह जीवन नश्वर ,
और निर्धारित साँसों का कोटा ,
जब कोटा समाप्त हो जायेगा ,
और ना कोई चारा होगा ,
यह भी समाप्त हो जायेगा ,
पंच तत्व में मिल जायेगा ,
छोड़ कर पुराना घर ,
आत्मा भी मुक्त हो जायेगी ,
नये घर की तलाश में ,
जाने कहाँ जायेगी |


आशा

22 नवंबर, 2010

तुम मुझे ना पहले समझे

तुम मुझे ना पहले समझे ,
और न कभी समझ पाओगे ,
हर बात का कुछ अर्थ होता है ,
अर्थ के पीछे छिपा ,
कोई सन्देश होता है ,
वह भी यदि ना समझ पाए ,
तो क्या फायदा बहस का ,
बिना बात तनाव झेलने का ,
इसी तरह यदि रहना था ,
नदी के दो किनारों की तरह ,
जो साथ तो चलते हैं ,
पर कभी मिल नहीं पाते ,
इसका दुःख नहीं होता ,
पर है यह फर्क सोच का ,
मुझे बार-बार लगता है ,
है इतनी दूरी आखिर क्यूँ ?
यह दूरी है या कोई मजबूरी ,
ऐसा भी यदि सोचा होता ,
अपने को दूसरे की जगह ,
रखा होता फिर विचारा होता ,
तब शायद समझ पाते ,
प्यार क्या होता है ?
होती है भावना क्या ?
साथ-साथ रहना ,
धन दौलत में धँसे रहना ,
क्या यही ज़िंदगी है ?
भावना की कद्र ना कर पाये ,
तो क्या लाभ ऐसी ज़िंदगी का ,
मैं जमीन पर फैला पारा नहीं ,
जिसे उठाना बहुत कठिन हो ,
हूँ हाड़ माँस का इंसान ,
जिसमें दिल भी धड़कता है ,
मुझे समझ नहीं पाते ,
दिल की भाषा पढ़ नहीं पाते ,
तुम कैसे न्याय कर सकते हो ,
अपने साथ या मेरे साथ,
हो कोसों दूर भावनाओं से ,
अपनी बात पर अड़े रहते ,
है कहाँ का न्याय यह ,
कभी सही गलत समझा होता ,
कुछ झुकना भी सीखा होता ,
तब शायद कोई हल होता ,
किसी की क्या समस्या है ,
यदि दूर उसे नहीं कर सकते ,
दो बोल सहानुभूति के भी ,
मुँह से यदि निकल पाते ,
कुछ बोझ तो हल्के होते ,
पर शायद मेरा सोच ही है गलत ,
नागरिक दूसरे दर्जे का ,
पहली पंक्ति में आ नहीं सकता ,
अपना अधिकार जता नहीं सकता ,
वह सोचता है क्या ,
शब्दों में बता नहीं सकता |


आशा

21 नवंबर, 2010

सत्ता ईश्वर की

है ईश्वर का वास मनुष्य में
जानते हैं सभी
पर फिर भी क्यूँ
अच्छाई और बुराई
साथ-साथ रह पाती हैं
अच्छाई दबती जाती है
मन के किसी कोने में
खोता जाता है मनुष्य
बुराई के दलदल में
जब भी किसी ऐसे व्यक्ति से
हो जाता संबंध
वह रिश्ता नहीं होता
होता है केवल समझौता
धीरे-धीरे अवगुण भी
अच्छे लगने लगते हैं
और साथ रहते-रहते
रिश्ता निभाने लगते हैं
है मनुष्य खान अवगुण की
बुराई का वर्चस्व बना रहता
बुद्ध और महावीर तो
बहुत कम होते हैं
मन में यदि ईश्वर रहता है
ऐसा क्यूँ होता है
चाहे जितनी करें प्रार्थना
प्रभाव नगण्य होता है
एक ही बात दो लोग साथ-साथ
जब भी देखते हैं
प्रतिक्रिया भिन्न होती है
है अच्छाई और बुराई
मन की ही तो उपज
फिर ईश्वर की सत्ता हो जहाँ
बुराई क्यूँ पनपती है |


आशा

20 नवंबर, 2010

ना जाना ऐसे ऑफिस में

ना जाना ऐसे ऑफिस में ,
जिसमें बिना 'मनी',
कुछ काम ना हो ,
चक्कर लगाते रह जाओगे ,
था काम क्या
यह भी भूल जाओगे |
वहाँ हर मेज़ पर ,
बड़े २ झमेले हैं ,
सब आस लगाए बैठे हैं ,
हैं ऐसे गिद्ध भी ,
जो ताक लगाये बैठे हैं |
नोटों की एक झलक भी ,
यदि जेबों में दिखाई दी
आख़िरी पैसा,
तक छुड़ा लेंगे,
तभी चैन की सांस लेंगे |
आदर्श अगर बघारा तुमने ,
और ना ढीली अंटी की ,
लगाते रहोगे ,
चक्कर पर चक्कर ,
फिर भी काम ,
ना करवा पाओगे |
वहाँ कोई भी सगा नहीं है ,
दो मेज़ों में दूरी नहीं है ,
जब मेज़ों के नीचे से ,
मोटी रकम पहुँचती है ,
सिलसिला काम का ,
तभी शुरू होता है |
यदि है इतनी जानकारी ,
और दिलेरी दिल दिमाग में ,
तभी वहाँ का रुख करना ,
वरना भूले से भी कभी ,
उधर की ओर मुँह नहीं करना |
लगे मुखौटे चेहरे पर ,
असलियत कोई नहीं जानता ,
कथनी और करनी की दूरी ,
भी ना पहचान पाता ,
भूले से यदि फँस जाओ,
नोट साथ लेते जाना ,
तभी होगा कुछ हासिल ,
नहीं तो दीमक के बमीटे से,
कुछ भी हाथ न आयेगा |
है महिमा रिश्वत की अनोखी ,
जो भी इसे जान पाया ,
बहती गंगा में हाथ धो ,
मज़ा ज़िन्दगी का लूट पाया ,
अंत चाहे जो भी हो ,
वह वर्तमान में जीता है ,
घूस खोरी को भी ,
अपनी आय समझ लेता है |


आशा