29 दिसंबर, 2010

दुनिया एक छलावा है


हूँ एक ऐसा अभागा 
दुनिया ने ठुकराया जिसे
वे भी अपने न हुए
विश्वास था जिन पर कभी
सफलता कभी हाथ नहीं आई
असफलता ने ही माथा चूमा
साया तक साथ छोड़ गया
तपती धूप में जब खड़ा पाया
कभी सोचा है  भाग्य ही खराब 
हर असफलता पर कोसा उसे
जो दुनिया रास नहीं आई
बार-बार धिक्कारा उसे
मेरी बदनसीबी पर
चन्द्रमा तक रोया
प्रातः काल उठते ही
पत्तियों पर आँसू उसके दिखे
चाँदनी तक भरती सिसकियाँ
बादलों की ओट से
फिर भी जी रहा हूँ
ले लगन ओर विश्वास साथ
साहस अभी भी बाकी है
आशा की किरण देती  दिखाई 
सफल भी होना चाहां 
पर इतना अवश्य जान गया हूँ
है दुनिया एक छलावा
वह किसी की नहीं होती
जब भी बुरा समय आये
वह साथ नहीं देती |


आशा

28 दिसंबर, 2010

एक विचार मन में आया

देख प्रकृति की छटा
खोया-खोया उसमें ही
जा रहा था अपनी धुन में
ध्यान गया उस पीपल पर
था अनोखा दृश्य वहाँ
 खड़खड़ा रहे थे पत्ते
आपस में बतिया रहे थे
मंद पवन को संग ले
आकाश में उड़ना चाह रहे थे
हरे रंग के कुछ पक्षी
यहाँ वहाँ उड़-उड़ कर
पीपल के फल खाते
पहले सोचा तोते होंगे
पर उत्सुकता ने ली अंगड़ाई
छुपता छुपाता आगे बढ़ा
दुबका एक झाड़ी की आड़ में
अब  था दृश्य बहुत साफ
वे तोते नहीं थे
लगते थे कबूतर से
पर कबूतर नहीं थे
वे हरे थे
एक डाल से दूसरी पर जाते
शांत बैठना मनहीं जानते
पीली चोंच, पीले पंजे
उन्हें विशिष्ट बना रहे थे
मैं अचम्भित टकटकी लगा
उनके करतब देख रहा था
निकट के जल स्त्रोत पर
झुकी डाल पर बैठ-बैठ
गर्दन झुका जल पी तृप्त हो
पत्तियों में ऐसे छुपे
मानो वहाँ कोई न हो
 एक व्यक्ति जब  निकला 
वृक्ष के नीचे से
सारे पक्षी उड़ गये
रोका उसे और पूछ लिया
थे ये कौन से पक्षी
लगते जो कबूतर से
पर रंग भिन्न उनसे
उसने ही बताया मुझे
ये वृक्ष पर ही रहते हैं
वही है बसेरा उनका
मुड़े हुए पंजे होने से
धरती पर चल नहीं पाते
हरे रंग के हैं
हरियाल उन्हें कहते हैं  (ग्रीन पिजन )
वह तो चला गया
मैं सोचता रह गया
प्रकृति की अनोखी कृति
उन पक्षियों के बारे में
तभी एक विचार मन में आया
मनुष्य ही मनुष्य का दुश्मन नहीं है
पक्षी भी भय खाते उससे
तभी तो उसे देख
उससे किनारा कर लेते हैं
शरण आकाश की लेते हैं |


आशा

16 दिसंबर, 2010

सुरमई आँखों की स्याही

सुरमई आँखों की स्याही
फीकी पड़ गयी है
गालों पर लकीर आँसुओं की
बहुत कुछ कह रहीं हैं
ना तो है धन की कमी
ना ही कमजोर हो तुम
फिर भी घिरी हुई
कितनी समस्याओं से
क्यूँ जूझ नहीं पातीं उनसे
है ऐसा क्या जो सह रही हो
बिना बात हँसना रोना
एकाएक गुमसुम हो जाना
है कोई बात अवश्य
जिसे कह नहीं पातीं
और घुटन सहती गईं
जब सब्र का बाँध टूट गया
आँखों से बहती अश्रु धारा
तुम कहो या न कहो
कई राज खोल गई
वह समय अब बीत गया
गलत बात भी सह लेतीं थीं
प्रतिकार कभी ना करती थीं
अब तुम इतनी सक्षम हो
आगे अपने कदम बढ़ाओ
सच कहने की हिम्मत जुटाओ
उठो, जागो, अन्याय का सामना करो
आत्मविश्वास क़ी मशाल जला
पुरज़ोर प्रतिकार उसका करो
तभी तुम कुछ कर पाओगी
अपनी पहचान बना पाओगी |


आशा

15 दिसंबर, 2010

कल्पना ही रोमांचक है

दी है दस्तक दरवाज़े पर
ठंडी हवा ने, जाड़े ने
और गुनगुनी धूप ने
बेटे का स्वेटर बुन रही हूँ
जल्दी ही पूरा हो जायेगा
क्या करती कोई नई बुनाई
ना मिल पाई थी
उसे खोजने में ही
इतने दिन यूँही बीत गये
कई किताबें देखीं
पत्रिकाएँ खरीदीं
पर वही घिसे पिटे नमूने
कुछ भी तो नया नहीं था
छोटे मोटे परिवर्तन कर
की गयी प्रस्तुति उनकी
देख मन खराब हुआ ,
फिर पुराना जखीरा नमूनों का
खुद ही खोज डाला
नर्म गर्म उन का अहसास
सलाई पर उतरते फंदे
और जाड़ों की कुनकुनी धूप
बेहद अच्छी लगती है
उँगलियों की गति
तीव्र हो जाती है
और जुट जाती हूँ
उसे स्वेटर में सहेजने में
जब वह उसे पहन निकलेगा
उसे रोक कोशिश होगी
स्वेटर देख कर
नमूना उतारने की
असफलता जब हाथ लगेगी
सब को बहुत कोफ्त होगी
बुनाई क़ी होड़ में
सबसे आगे रहने में
जो आनंद मिलेगा
उसकी कल्पना ही रोमांचक है !


आशा





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14 दिसंबर, 2010

खुलने लगे हैं राज

खुलने लगे हैं राज़ अब ,
अब उस किताब के ,
अनछुए पन्नों के ,
हर पन्ने पर थीं कुछ लाइनें ,
पेन्सिल से चिन्हित ,
वे ही पढ़ ली जाती थीं ,
और रस्म अदाई हो जाती थी ,
उसे पढ़ने की ,
जो पन्ने छुए नहीं गये ,
जानने क़ी इच्छा ज़रूर थी ,
लिखा है क्या उनमें ,
लगने लगा तुझ से मिल कर ,
कहीं भूल हुई है ,
पुस्तक को पढ़ने में ,
उसका तो हर शब्द बोलता है ,
तेरे मन में क्या था ,
कैसी अभिव्यक्ति थी ,
और अनुभवों का ,
रिसाव था कृति में ,
सच कहूँ अब लग रहा है ,
तुझमें और उसमें ,
है कितना अधिक साम्य ,
एक-एक शब्द यदि नहीं पढ़ा ,
उस पर विचार नहीं किया ,
तब समझना बहुत कठिन है ,
तुझे और तेरी किताब को ,
और उसमें छिपे राज़ को |


आशा




,

13 दिसंबर, 2010

एक आम आदमी


दिखाई देता है जैसा
वह उन सब सा नहीं है
बना सँवरा रहता है
पर धनवान नहीं है
दावा करता विद्वत्ता का
चतुर सुजान होने का
कुछ भी तो नहीं है
संतृप्त दिखाई देता 
पर हैं अपूर्ण आशाएं
हैं दबी हुई भावनाएं
वह संतुष्ट नहीं है
दिखावा ईमानदारी का
पर लिप्त भ्रष्टाचार में
दोहरा जीवन जी रहा 
है विरोधाभास व्यक्तित्व में
वह भी जानता है
पर स्वीकारता नहीं
परिवार की गाड़ी खींच रहा 
कितना बोझ उठा रहा है
किस बोझ तले दबा है
कितनों का  है कर्ज़दार 
यह नहीं जानता
या नहीं स्वीकारता
क्यूँकि वह है
एक आम आदमी
और कोशिश कर रहा है
विशिष्ट बनने की |


आशा

11 दिसंबर, 2010

सच क्यूँ नहीं कहते


बातों के लच्छे
गालों के डिम्पल
और शरारत चेहरे पर
किसे खोजती आँखें तेरी
लिए मुस्कान अधरों पर
कहीं दूर बरगद के नीचे
मृगनयनी बैठी आँखें मींचे
करती इंतज़ार हर पल तेरा
चौंक जाती हर आहट पर
आँखें फिर भी नहीं खोलती
यही भरम पाले रहती
नयनों में कैद किया तुझको
दिल में बंद किया तुझको
खुलते ही पट नयनों के
तू कहीं न खो जाये
स्वप्न स्वप्न ही न रह जाए
है अपेक्षा क्या उससे
स्पष्ट क्यूँ नहीं करते
 क्या चाहते हो
सच क्यूँ नहीं कहते 
 भ्रम जब टूट जायेगा
सत्यता जान पाएगी |
आशा


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