(१)
वह राज़ क्या ,
उसका अंदाज़ क्या  ,
जिसे जानने की उत्सुकता न हो |
   (२)
वह साज़ क्या ,
उसकी मधुरता क्या ,
जिसे सुनने की चाहत न हो |
   (३)
वह रूप क्या ,
उसका सौंदर्य क्या ,
जिसे देखने की तमन्ना न हो |
   (४)
वह प्रश्न क्या ,
उसका महत्व क्या ,
जिसका केवल एक उत्तर न हो |
  (५)
वह समाज क्या ,
उसका वजूद क्या ,
जिसमे सामंजस्य की क्षमता न हो |
  (६)
हो अपेक्षा उससे कैसी ,
जो वक्त पर काम न आये ,
हृदय की भावना भी न पहचान पाये |
  (७)
होता सच्चा  प्यार वही,
जो पहली नज़र में हो जाये ,
और दोनों को ही रास आये |
   (८)
है स्वप्न  सच्चा वही,
जो साकार  तो हो ,
पर डरा कर ना जाये |
 (९)
है दुश्मन वही ,
जो पूरी दुश्मनी निभाये ,
दे चोट ऐसी कि ज़िंदगी के साथ जाये |
आशा
04 जनवरी, 2011
03 जनवरी, 2011
क्यूँ उठने लगे हैं सवाल
क्यूँ उठने लगे हैं सवाल ,
रोज होने लगे हैं खुलासे ,
और होते भंडाफोड़ ,
कई दबे छिपे किस्सों के ,
पहले जब वह कुर्सी पर था ,
कोई कुछ नहीं बोला ,
हुए तो तभी थे कई कांड ,
पर तब था कुर्सी का प्रभाव ,
कहीं खुद के काम न अटक जायें ,
तभी तो मौन रखे हुए थे ,
जाते ही कुर्सी इज्जत सड़क पर आई ,
कई कमीशन कायम हुए ,
अनेकों राज़ उजागर हुए ,
और खुलने लगे द्वार,
कारागार के उनके लिए ,
क्या उचित था तब मौन रहना ,
या गलत को भी सही कहना ,
हाँ में हाँ मिला उसके,
अहम् को तुष्ट करना ,
प्रजातंत्र के नियमों का ,
खुले आम अनादर करना ,
तब आवाज़ कहां गयी थी ,
क्यूँ बंद हो गयी थी ,
अब ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला कर ,
ढोल में पोल बता कर ,
सोचने पर विवश कर रहे हो ,
तुम भी उन में से ही हो ,
तब तो बढ़ावा खूब दिया ,
अब टांगें खींच रहे हो ,
जब कुर्सी से नीचे आ गया है ,
पर है वह चतुर सुजान ,
चाहे जितने कमीशन बैठें ,
अपने बचाव का उपाय खोज ही लेगा |
आशा
रोज होने लगे हैं खुलासे ,
और होते भंडाफोड़ ,
कई दबे छिपे किस्सों के ,
पहले जब वह कुर्सी पर था ,
कोई कुछ नहीं बोला ,
हुए तो तभी थे कई कांड ,
पर तब था कुर्सी का प्रभाव ,
कहीं खुद के काम न अटक जायें ,
तभी तो मौन रखे हुए थे ,
जाते ही कुर्सी इज्जत सड़क पर आई ,
कई कमीशन कायम हुए ,
अनेकों राज़ उजागर हुए ,
और खुलने लगे द्वार,
कारागार के उनके लिए ,
क्या उचित था तब मौन रहना ,
या गलत को भी सही कहना ,
हाँ में हाँ मिला उसके,
अहम् को तुष्ट करना ,
प्रजातंत्र के नियमों का ,
खुले आम अनादर करना ,
तब आवाज़ कहां गयी थी ,
क्यूँ बंद हो गयी थी ,
अब ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला कर ,
ढोल में पोल बता कर ,
सोचने पर विवश कर रहे हो ,
तुम भी उन में से ही हो ,
तब तो बढ़ावा खूब दिया ,
अब टांगें खींच रहे हो ,
जब कुर्सी से नीचे आ गया है ,
पर है वह चतुर सुजान ,
चाहे जितने कमीशन बैठें ,
अपने बचाव का उपाय खोज ही लेगा |
आशा
02 जनवरी, 2011
रंग बिरंगे फूल चुने
रंग बिरंगे फूल चुने 
चुन-चुन कर 
 माला बनाई  
रोली चावल और नैवेद्य से 
है थाली खूब  सजाई  
यह नहीं केवल आकर्षण 
प्रबल भावना है मेरी 
माला में गूँथे गये फूल 
कई बागों से चुन-चुन 
नाज़ुक हाथों से 
सुई से धागे में पिरो कर 
माला के रूप में लाई हूँ 
भावनाओं का समर्पण 
ध्यान मग्न रह 
तुझ में ही खोये रहना 
देता सुकून मन को 
शांति प्रदान करता 
जब भी विचलित होता 
सानिध्य पा तेरा 
स्थिर  होने लगता है 
नयी  ऊर्जा आती है 
नित्य प्रेरणा मिलती है 
दुनिया के छल छिद्रों से 
 दूर बहुत हो शांत मना  
भय मुक्त सदा  रहती हूँ 
होता संचार साहस का 
है यही संचित पूँजी 
इस पर होता गर्व मुझे 
हे सृष्टि के रचने वाले 
 मन से करती  स्मरण तेरा 
तुझ पर ही है पूरी निष्ठा | 
आशा
31 दिसंबर, 2010
कल जब सुबह होगी
कल जब सुबह होगी 
एक वर्ष बाद आँखें खुलेंगी 
रात भर में ही
पूरा  वर्ष बीत जायेगा 
क्योंकि इस वर्ष सोओगे 
और कल होगा अगला वर्ष  
जब मंद-मंद मुस्कान लिए 
उदित होते सूरज की 
प्रथम किरण निहारोगे 
अरुणिमा से आच्छादित आकाश 
और मखमली धूप का अहसास 
सब  कुछ नया-नया होगा 
क्योंकि नये वर्ष का स्वागत करोगे 
संजोये स्वप्नों की   उड़ानें 
जो पूर्ण नहीं हो  पाईं पहले 
साकार उन्हें करने के लिए 
खुद से कई वादे  करोगे 
आज रात नाचो गाओ 
नव वर्ष के स्वागतार्थ 
मन में होते स्पंदन का
खुल कर इज़हार करो 
वैसे भी तुम्हें था कब से इन्तजार 
आज की रात का 
कल के प्रभात का ,
और नए सन् के प्रारम्भ का 
नाचो गाओ खुशियाँ बाँटो 
बीते कल को अलविदा कहो 
आने वाले  नये  दिन का 
दिल खोल स्वागत करो |
आशा
30 दिसंबर, 2010
एक वर्ष और बीत गया
एक वर्ष और बीत गया 
कुछ भी नया नहीं हुआ 
हर बार की तरह इस वर्ष भी 
नया साल मनाया था 
रंगारंग  कार्यक्रमों से  सजाया था 
खुशियाँ बाँटी थीं सब को 
कठिन स्थितियों से जूझने की 
बीती बातें भुलाने की 
कसमें  भी खाई थीं 
पर पूरा साल बीत गया 
कोई परिवर्तन नहीं हुआ 
ना तो समाज में, ना ही देश में 
ओर ना ही प्रदेश में 
एक ही उदाहरण काफी है 
प्रगति के आकलन के लिए 
सड़कों पर डम्बर डाला था 
कुछ नई भी बनाईं थीं 
बहुत कार्य हुआ है 
बार-बार कहा गया था 
एक बार की वर्षा में ही 
सारा डम्बर उखड़  गया 
रह गए बस ऊबड़ खाबड़ रास्ते 
गड्ढे उनपर इतने कि 
चलना भी दूभर होगया 
महँगाई की मार ने 
भ्रष्टाचार और अनाचार ने 
सारी सीमाएं पार कीं 
जीना कठिन से कठिनतर हुआ 
पर  स्वचालित यंत्र की तरह 
आने वाले कल का स्वागत   कर 
औपचारिकता  भी  निभानी है !
आशा
29 दिसंबर, 2010
दुनिया एक छलावा है
हूँ एक ऐसा अभागा  
दुनिया ने ठुकराया जिसे 
वे भी अपने न हुए 
विश्वास था जिन पर कभी 
सफलता कभी हाथ नहीं आई 
असफलता ने ही माथा चूमा 
साया तक साथ छोड़ गया 
तपती धूप में जब खड़ा पाया 
कभी सोचा है  भाग्य ही खराब  
हर असफलता पर कोसा उसे 
जो दुनिया रास नहीं आई 
बार-बार धिक्कारा उसे 
मेरी बदनसीबी पर 
चन्द्रमा  तक रोया 
प्रातः   काल उठते ही 
पत्तियों पर आँसू उसके दिखे 
चाँदनी तक भरती सिसकियाँ 
बादलों की ओट से 
फिर भी जी रहा हूँ 
ले लगन ओर विश्वास साथ 
साहस अभी भी बाकी है 
आशा की किरण देती  दिखाई  
सफल भी होना चाहां  
पर इतना अवश्य जान गया हूँ 
है दुनिया एक छलावा 
वह किसी की नहीं होती 
जब भी बुरा समय आये 
वह साथ नहीं देती |
आशा
28 दिसंबर, 2010
एक विचार मन में आया
देख प्रकृति की छटा
खोया-खोया उसमें ही 
जा रहा था अपनी धुन में 
ध्यान गया उस पीपल पर 
था अनोखा दृश्य वहाँ 
 खड़खड़ा रहे थे पत्ते 
आपस में बतिया रहे थे 
मंद पवन को संग ले 
आकाश में  उड़ना चाह रहे थे 
हरे रंग के कुछ पक्षी 
यहाँ वहाँ उड़-उड़  कर 
पीपल के फल खाते 
पहले सोचा तोते होंगे 
पर उत्सुकता ने ली अंगड़ाई 
छुपता छुपाता आगे बढ़ा 
दुबका एक झाड़ी की आड़ में 
अब  था दृश्य बहुत साफ 
वे तोते नहीं थे 
लगते थे कबूतर से 
पर कबूतर नहीं थे 
वे हरे थे 
एक डाल से दूसरी पर जाते 
शांत बैठना मनहीं जानते 
पीली चोंच, पीले पंजे 
उन्हें विशिष्ट बना रहे थे 
मैं अचम्भित टकटकी लगा 
उनके करतब देख रहा था 
निकट के जल स्त्रोत पर 
झुकी डाल पर बैठ-बैठ 
गर्दन झुका जल पी  तृप्त हो 
पत्तियों में ऐसे छुपे 
मानो वहाँ कोई न हो 
 एक व्यक्ति जब  निकला  
वृक्ष के नीचे से 
सारे पक्षी उड़ गये 
रोका उसे और पूछ लिया 
थे ये कौन से पक्षी 
लगते जो कबूतर से 
पर रंग भिन्न उनसे 
उसने ही बताया मुझे 
ये वृक्ष  पर ही रहते हैं 
वही है बसेरा उनका 
मुड़े हुए पंजे होने से 
धरती पर चल नहीं पाते 
हरे रंग के हैं 
हरियाल उन्हें  कहते हैं  (ग्रीन पिजन )
वह तो चला गया 
मैं  सोचता रह गया 
प्रकृति की अनोखी कृति 
उन पक्षियों के बारे में 
तभी एक विचार मन में आया 
मनुष्य ही मनुष्य का दुश्मन नहीं है 
पक्षी भी भय खाते उससे 
तभी तो उसे देख 
उससे किनारा कर लेते हैं 
शरण  आकाश की लेते हैं |
आशा
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