पहले जब देखा उन्हें ,
वे मेरे निकट आने लगे ,
मन में भी समाने लगे ,
जब तब सपनों में आकर ,
उन्हें भी रंगीन करने लगे ,
आने से उनके ,
जो फैलती थी सुरभि ,
स्वप्न में ही सही ,
सारी बगिया महक उठती थी ,
बहुत बार विचार किया ,
फिर मिलने की आशा जागी ,
पहले तो वे सकुचाए ,
फिर घर का पता बताने लगे ,
उन लोगों तक जब पहुँचा ,
कुछ कहना चाहा हाथ माँगा ,
एक ही उत्तर मिला ,
घर वालों से पहले पूछो ,
उनकी स्वीकृति तो लो ,
बात उठाई जब घर में ,
सुनने को मिला आदेश भी ,
यह खेल नहीं गुड्डे गुड़िया का ,
सारी बातें भूल जाओ ,
पहले अपना भविष्य बनाओ ,
फिर कोई विचार करना ,
गहन हताशा हाथ आई ,
मन बहुत उदास हुआ ,
अचानक जाने क्या हुआ ,
जल्दी ही मन के विरुद्ध ,
किया गया एक रिश्ता ,
बे मन से ही सही ,
उसे स्वीकार करना पड़ा ,
सोचने को है बहुत कुछ ,
ओर सोचा भी कम नहीं ,
मन कसैला होने लगा ,
पर एक बात ध्यान आती है ,
शायद होता यही दस्तूर दुनिया का ,
यहाँ हर रिश्ता बे मेल होता है ,
पर समाज को स्वीकार होता है |
आशा
06 जनवरी, 2011
05 जनवरी, 2011
अब तो तलाश है
जीवन की तेज़ रफ्तार ,
अब रास नहीं आती ,
ऊँची नीची पगडण्डी पर ,
चल नहीं पाती ,
कारण जानती हूँ ,
पर स्वीकारती नहीं ,
हैं कमियाँ अनेक ,
समझती हूँ सब ,
पर अनजान रहती हूँ ,
प्रतिकार नहीं करती ,
क्यूँकि सच का सामना ,
कर नहीं पाती ,
कुछ करने की,
ललक तो रहती है ,
पर जीवन की शाम ,
और यह थकान ,
मन की हो ,
या हो तन की ,
पूर्ण होने नहीं देती ,
असफल होते ही ,
मन खंड-खंड हो जाता है ,
एक बवंडर उठता है ,
भूचाल सा आ जाता है ,
जीवन के आखिरी पड़ाव का ,
अहसास घेर लेता है ,
लाभ क्या ऐसे जीवन का ,
विचार झझकोर देता है ,
मन विचलित हो जाता है ,
गिर कर उठना सहज नहीं है ,
अब तो है तलाश,
मुक्ति मार्ग की |
आशा
अब रास नहीं आती ,
ऊँची नीची पगडण्डी पर ,
चल नहीं पाती ,
कारण जानती हूँ ,
पर स्वीकारती नहीं ,
हैं कमियाँ अनेक ,
समझती हूँ सब ,
पर अनजान रहती हूँ ,
प्रतिकार नहीं करती ,
क्यूँकि सच का सामना ,
कर नहीं पाती ,
कुछ करने की,
ललक तो रहती है ,
पर जीवन की शाम ,
और यह थकान ,
मन की हो ,
या हो तन की ,
पूर्ण होने नहीं देती ,
असफल होते ही ,
मन खंड-खंड हो जाता है ,
एक बवंडर उठता है ,
भूचाल सा आ जाता है ,
जीवन के आखिरी पड़ाव का ,
अहसास घेर लेता है ,
लाभ क्या ऐसे जीवन का ,
विचार झझकोर देता है ,
मन विचलित हो जाता है ,
गिर कर उठना सहज नहीं है ,
अब तो है तलाश,
मुक्ति मार्ग की |
आशा
04 जनवरी, 2011
कुछ विचार बिखरे बिखरे
(१)
वह राज़ क्या ,
उसका अंदाज़ क्या ,
जिसे जानने की उत्सुकता न हो |
(२)
वह साज़ क्या ,
उसकी मधुरता क्या ,
जिसे सुनने की चाहत न हो |
(३)
वह रूप क्या ,
उसका सौंदर्य क्या ,
जिसे देखने की तमन्ना न हो |
(४)
वह प्रश्न क्या ,
उसका महत्व क्या ,
जिसका केवल एक उत्तर न हो |
(५)
वह समाज क्या ,
उसका वजूद क्या ,
जिसमे सामंजस्य की क्षमता न हो |
(६)
हो अपेक्षा उससे कैसी ,
जो वक्त पर काम न आये ,
हृदय की भावना भी न पहचान पाये |
(७)
होता सच्चा प्यार वही,
जो पहली नज़र में हो जाये ,
और दोनों को ही रास आये |
(८)
है स्वप्न सच्चा वही,
जो साकार तो हो ,
पर डरा कर ना जाये |
(९)
है दुश्मन वही ,
जो पूरी दुश्मनी निभाये ,
दे चोट ऐसी कि ज़िंदगी के साथ जाये |
आशा
वह राज़ क्या ,
उसका अंदाज़ क्या ,
जिसे जानने की उत्सुकता न हो |
(२)
वह साज़ क्या ,
उसकी मधुरता क्या ,
जिसे सुनने की चाहत न हो |
(३)
वह रूप क्या ,
उसका सौंदर्य क्या ,
जिसे देखने की तमन्ना न हो |
(४)
वह प्रश्न क्या ,
उसका महत्व क्या ,
जिसका केवल एक उत्तर न हो |
(५)
वह समाज क्या ,
उसका वजूद क्या ,
जिसमे सामंजस्य की क्षमता न हो |
(६)
हो अपेक्षा उससे कैसी ,
जो वक्त पर काम न आये ,
हृदय की भावना भी न पहचान पाये |
(७)
होता सच्चा प्यार वही,
जो पहली नज़र में हो जाये ,
और दोनों को ही रास आये |
(८)
है स्वप्न सच्चा वही,
जो साकार तो हो ,
पर डरा कर ना जाये |
(९)
है दुश्मन वही ,
जो पूरी दुश्मनी निभाये ,
दे चोट ऐसी कि ज़िंदगी के साथ जाये |
आशा
03 जनवरी, 2011
क्यूँ उठने लगे हैं सवाल
क्यूँ उठने लगे हैं सवाल ,
रोज होने लगे हैं खुलासे ,
और होते भंडाफोड़ ,
कई दबे छिपे किस्सों के ,
पहले जब वह कुर्सी पर था ,
कोई कुछ नहीं बोला ,
हुए तो तभी थे कई कांड ,
पर तब था कुर्सी का प्रभाव ,
कहीं खुद के काम न अटक जायें ,
तभी तो मौन रखे हुए थे ,
जाते ही कुर्सी इज्जत सड़क पर आई ,
कई कमीशन कायम हुए ,
अनेकों राज़ उजागर हुए ,
और खुलने लगे द्वार,
कारागार के उनके लिए ,
क्या उचित था तब मौन रहना ,
या गलत को भी सही कहना ,
हाँ में हाँ मिला उसके,
अहम् को तुष्ट करना ,
प्रजातंत्र के नियमों का ,
खुले आम अनादर करना ,
तब आवाज़ कहां गयी थी ,
क्यूँ बंद हो गयी थी ,
अब ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला कर ,
ढोल में पोल बता कर ,
सोचने पर विवश कर रहे हो ,
तुम भी उन में से ही हो ,
तब तो बढ़ावा खूब दिया ,
अब टांगें खींच रहे हो ,
जब कुर्सी से नीचे आ गया है ,
पर है वह चतुर सुजान ,
चाहे जितने कमीशन बैठें ,
अपने बचाव का उपाय खोज ही लेगा |
आशा
रोज होने लगे हैं खुलासे ,
और होते भंडाफोड़ ,
कई दबे छिपे किस्सों के ,
पहले जब वह कुर्सी पर था ,
कोई कुछ नहीं बोला ,
हुए तो तभी थे कई कांड ,
पर तब था कुर्सी का प्रभाव ,
कहीं खुद के काम न अटक जायें ,
तभी तो मौन रखे हुए थे ,
जाते ही कुर्सी इज्जत सड़क पर आई ,
कई कमीशन कायम हुए ,
अनेकों राज़ उजागर हुए ,
और खुलने लगे द्वार,
कारागार के उनके लिए ,
क्या उचित था तब मौन रहना ,
या गलत को भी सही कहना ,
हाँ में हाँ मिला उसके,
अहम् को तुष्ट करना ,
प्रजातंत्र के नियमों का ,
खुले आम अनादर करना ,
तब आवाज़ कहां गयी थी ,
क्यूँ बंद हो गयी थी ,
अब ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला कर ,
ढोल में पोल बता कर ,
सोचने पर विवश कर रहे हो ,
तुम भी उन में से ही हो ,
तब तो बढ़ावा खूब दिया ,
अब टांगें खींच रहे हो ,
जब कुर्सी से नीचे आ गया है ,
पर है वह चतुर सुजान ,
चाहे जितने कमीशन बैठें ,
अपने बचाव का उपाय खोज ही लेगा |
आशा
02 जनवरी, 2011
रंग बिरंगे फूल चुने
रंग बिरंगे फूल चुने
चुन-चुन कर
माला बनाई
रोली चावल और नैवेद्य से
है थाली खूब सजाई
यह नहीं केवल आकर्षण
प्रबल भावना है मेरी
माला में गूँथे गये फूल
कई बागों से चुन-चुन
नाज़ुक हाथों से
सुई से धागे में पिरो कर
माला के रूप में लाई हूँ
भावनाओं का समर्पण
ध्यान मग्न रह
तुझ में ही खोये रहना
देता सुकून मन को
शांति प्रदान करता
जब भी विचलित होता
सानिध्य पा तेरा
स्थिर होने लगता है
नयी ऊर्जा आती है
नित्य प्रेरणा मिलती है
दुनिया के छल छिद्रों से
दूर बहुत हो शांत मना
भय मुक्त सदा रहती हूँ
होता संचार साहस का
है यही संचित पूँजी
इस पर होता गर्व मुझे
हे सृष्टि के रचने वाले
मन से करती स्मरण तेरा
तुझ पर ही है पूरी निष्ठा |
आशा
31 दिसंबर, 2010
कल जब सुबह होगी
कल जब सुबह होगी
एक वर्ष बाद आँखें खुलेंगी
रात भर में ही
पूरा वर्ष बीत जायेगा
क्योंकि इस वर्ष सोओगे
और कल होगा अगला वर्ष
जब मंद-मंद मुस्कान लिए
उदित होते सूरज की
प्रथम किरण निहारोगे
अरुणिमा से आच्छादित आकाश
और मखमली धूप का अहसास
सब कुछ नया-नया होगा
क्योंकि नये वर्ष का स्वागत करोगे
संजोये स्वप्नों की उड़ानें
जो पूर्ण नहीं हो पाईं पहले
साकार उन्हें करने के लिए
खुद से कई वादे करोगे
आज रात नाचो गाओ
नव वर्ष के स्वागतार्थ
मन में होते स्पंदन का
खुल कर इज़हार करो
वैसे भी तुम्हें था कब से इन्तजार
आज की रात का
कल के प्रभात का ,
और नए सन् के प्रारम्भ का
नाचो गाओ खुशियाँ बाँटो
बीते कल को अलविदा कहो
आने वाले नये दिन का
दिल खोल स्वागत करो |
आशा
30 दिसंबर, 2010
एक वर्ष और बीत गया
एक वर्ष और बीत गया
कुछ भी नया नहीं हुआ
हर बार की तरह इस वर्ष भी
नया साल मनाया था
रंगारंग कार्यक्रमों से सजाया था
खुशियाँ बाँटी थीं सब को
कठिन स्थितियों से जूझने की
बीती बातें भुलाने की
कसमें भी खाई थीं
पर पूरा साल बीत गया
कोई परिवर्तन नहीं हुआ
ना तो समाज में, ना ही देश में
ओर ना ही प्रदेश में
एक ही उदाहरण काफी है
प्रगति के आकलन के लिए
सड़कों पर डम्बर डाला था
कुछ नई भी बनाईं थीं
बहुत कार्य हुआ है
बार-बार कहा गया था
एक बार की वर्षा में ही
सारा डम्बर उखड़ गया
रह गए बस ऊबड़ खाबड़ रास्ते
गड्ढे उनपर इतने कि
चलना भी दूभर होगया
महँगाई की मार ने
भ्रष्टाचार और अनाचार ने
सारी सीमाएं पार कीं
जीना कठिन से कठिनतर हुआ
पर स्वचालित यंत्र की तरह
आने वाले कल का स्वागत कर
औपचारिकता भी निभानी है !
आशा
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