22 जनवरी, 2011

कोई नहीं समझ पाया

उगता सूरज धीरे-धीरे
चढ़ता ऊपर धीमी गति से
पर अस्ताचल को जाता
इतनी तीव्र गति से
कब शाम उतरी आँगन में
जान नहीं पाई वह |
ऐसा ही कुछ हुआ है
उसकी भी जिंदगी में
थी नन्ही नाजुक गुड़िया सी
ठुमक-ठुमक चलती घर में
किलकारियों से दूर बहुत
गुमसुम रहती घर बाहर में|
एकांत उसे अच्छा लगता
किसी के समक्ष जब आती
चुप रहती कुछ सकुचाती
ना कोई मित्र ना ही सहेली
रहती नितांत अकेली
वह भावनाओं का साझा
किसी से भी कर पाई
मन में दबे हुए अहसास
भी किसी से बाँट पाई |
उसके मन में क्या है
अंदाज कोई लगा पाया
जब भी कोई बात उठी
उसे ही दोषी ठहराया
मन कि स्थिति है क्या उसकी
यह भी ना जानना चाहा |
वह तनाव ग्रस्त
रह कर जिये कैसे
समझ नहीं पाती
अस्त होते सूरज की तरह
खुद को डूबता पाती
विचलित मन
कुछ करने नहीं देता
यदि करना चाहे
समाज अतीत के जख्मों से
उबरने भी नहीं देता |
बहुत अकेली हो गई है
यही सोचती रहती है
उसका भविष्य क्या होगा
जब कोई भी सहारा होगा
क्या कभी वह
इतनी सक्षम हो पायेगी
अपने निर्णय स्वयं लेने की
क्षमता जुटा पायेगी |

आशा



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21 जनवरी, 2011

होता मोती अनमोल

सागर में सीपी
सीपी में मोती ,
वह गहरे जल में जा बैठी
आचमन किया सागर जल से
स्नान किया खारे जल से
फिर भी कभी नहीं हिचकी
गहरे जल में रहने में
क्योंकि वह जान गई थी
एक मोती पल रहा था
तिल-तिल कर बढ़ रहा था
उसके तन में
पानी क्यूँ ना हो मोती में
कई परतों में छिपा हुआ था
जतन से सहेजा गया था
यही आभा उसकी
बना देती अनमोल उसे
बिना पानी वह कुछ भी नहीं
उसका कोई मूल्य नहीं
सारा श्रेय जाता सीपी को
जिसने कठिन स्थिति में
हिम्मत ज़रा भी नहीं हारी
हर वार सहा जलनिधि का
और आसपास के जीवों का
क्योंकि मोती पल रहा था
अपना विकास कर रहा था
उसके ही तन में
था बहुत अनमोल
सब के लिये |

आशा

20 जनवरी, 2011

है क्यूँ इतना गुमान

है क्यूँ इतना गुमान
इस क्षण भंगुर काया पर
क्यूँ होता अभिमान
दूसरों का अपमान कर
क्या यह उचित करती हो
ऐसा व्यवहार
नहीं अपेक्षित तुमसे
गुण स्थाई होते हैं
काया नहीं
यही काया एक दिन कृशकाय
तो दूसरे दिन
कंकाल हो जाती है |
इन परिवर्तनों में
समय कब निकल जाता है
पता ही नहीं चलता
क्या कभी विचार किया है
अपने गुणों का सदुपयोग
क्यूँ नहीं करतीं
इतनी रूप गर्विता हो
धरती पर पैर नहीं रखतीं
जब जुड़ी नहीं जमीन से
तब कैसे सब से
प्रेम बाँट पाओगी
ईश्वर ने भेजा इस जग में
सद्भाव बढ़ाने के लिये
हो अपने में इतनी व्यस्त
कि बहुत कृपण हो जाती हो
प्रेम सब को बाँटने में |
रूप गर्विता हो
तुम्हारा यही सोच
ठीक नहीं है
तुम यहीं सही नहीं हो |
गुणों का महत्व जानती हो
फिर भी अपनाने की
पहल नहीं करतीं
क्या यहीं तुम गलत नहीं हो ?

आशा

19 जनवरी, 2011

और सपना साकार हुआ

जीवन की डगर पर ,
साथ उसे जब चलते देखा
कई फूल खिले मन के अंदर ,
उन से महका तन मन चंचल
उसकी वह अनुभूति हुई जब
खुलने लगे मन के बंधन ,
स्पष्ट बात करना उसका
मधुर मुस्कान सदा आनन पर
वह और उसका आकर्षण
कर देता बेचैन मुझे ,
अपनत्व पाने के लिये
उसके निकट आने के लिये
वह रूप और अदाएं
मन करता खींच लाऊँ उसे ,
अपने मन की बगिया में |
साथ बैठूँ बातें करूँ
कुछ अपनी कहूँ
कुछ उसकी सुनूँ
जैसे ही हाथ बढ़ाना चाहा
कि सपना टूट गया |
स्वप्न में जिसकी इच्छा थी
वह सामने खड़ी थी
अपने मुखड़े पर आई
उलझी लट सुलझा रही थी |
वही स्मित मुस्कान
लिये चहरे पर
पर यह स्वप्न नहीं था
सच्चाई थी
वही मेरे सामने खड़ी थी |

आशा

18 जनवरी, 2011

है न्याय कैसा

है जिंदगी मेरी
एक टिमटिमाता दिया
रोशनी कभी धीमी
तो कभी तीव्र हो जाती है
वायु का एक झोंका भी
मन अस्थिर कर जाता है ,
अंतर्द्वन्द मचा हुआ है
कोई हल नहीं मिलता
चाहती थी एक
मगर एक साथ दो आई हैं
कैसे इन नन्हीं कलियों का
जीवन यापन कर पाऊँगी
मन चाही हर खुशी से
इनकी दुनिया रँग पाऊँगी |
पहले ही कठिनाई कम थी
दो जून रोटी भी
सहज उपलब्ध थी
अब दो मुँह और बढ़ गए हैं
हैं हाथ केवल दो काम के लिये
आर्थिक बोझ उठाने के लिये |
बढ़ गई संख्या हमारी
उस पर मँहगाई की मार ,
सारी खुशियाँ छिनने लगी हैं |
यह नहीं कि मैं माँ नहीं हूँ
संवेदना नहीं है मुझ में
दोनों ही प्यारी हैं मुझे
लगती हैं अनियारी मुझे |
छोटी-छोटी आवश्यकतायें
जब पूरी नहीं कर पाती
बहने लगती अश्रु धारा
बहुत अधीर हो जाती हूँ |
जो चाहती थीं गोद हरी हो
नन्हीं सी गुड़िया घर आए
जाने क्या-क्या कर रही हैं
जादू टोना , तंत्र मन्त्र |
पर घर गूँज उठा मेरा
दोनों कि किलकारी से
पर अनचाही चिंता भी साथ आई है
दोनों के आगमन से |
फिर भी है विश्वास
जब गोद भर गई है
नैया भी पार
लग ही जायेगी |
मँहगाई का रोना क्या
कभी नियंत्रण
उस पर भी होगा
प्रभु कि कृपा कभी तो होगी |
पर एक विचार मन में आता है
है न्याय कैसा ईश्वर का
जहाँ चाह है राह नहीं है
पर हमने तो बिना माँगे ही
झोली भर-भर पा लिया है |

आशा

17 जनवरी, 2011

एक तितली उड़ी


एक तितली उड़ी
मधु मास में
नीलाम्बर में ,
किसी की तलाश में
था जो सब से प्रिय उसको ,
और बिछड़ गया था
भीड़ भरे संसार में |
वह भटकी जंगल-जंगल
घास के मैदान में
बाग बगीचों में
और जाने कहाँ-कहाँ |
जब वह नहीं मिल पाया
हुई बहुत उदास
खोजते-खोजते थकने लगी |
तभी संग पवन के
मंद-मंद सुरभि फैली
यही गंघ थी उसकी
जिसे वह खोज रही थी |
खोज हो गई समाप्त
जब मिली उससे वहाँ
सजे सजाए पुष्प गुच्छ में
पास गई गले लगाया
अपना सारा दुःख दर्द सुनाया
तब का जब थी नितांत अकेली
खोज रही थी अपने प्रिय को |
जब दोनों को मिलते देखा
जलन हुई अन्य पुष्पों को
पर एक ने समझाया
जब हैं दोनों ही प्रसन्न
तब जलन हो क्यूँ हम को
आओ ईश्वर से प्रार्थना करें
उन्हें आशीष देने के लिये
जो मिल गए हैं पुनः
इस भीड़ भरे संसार में |

आशा

16 जनवरी, 2011

क्यूँ नहीं आए अभीतक

क्यूँ नहीं आए अभी तक ,
कब तक बाट निहारूँ मैं ,
ले रहे हो कठिन परीक्षा ,
है विश्वास में कहाँ कमी ,
कभी विचार आता है
अधिक व्यस्तता होगी ,
जल्दी ही बदल जाता है
कुछ बुरा तो नहीं हुआ है ,
चंचल विचलित यहाँ वहाँ
कहाँ नहीं ढूँढा तुमको ,
फिर भी खोज नहीं पाई
चिंताएं मन में छाईं ,
जब भी फोन की घंटी बजती ,
तुम्हारे सन्देश की आशा जगती ,
यदि वह किसी और का होता ,
चिंताओं में वृद्धि होती ,
यह चंचलता यह बेचैनी
कुछ भी करने नहीं देती ,
यदि बता कर जाते
यह परेशानी तो नहीं होती |
बहुत इन्तजार कर लिया
जल्दी से लौट आओ
मेरा सब का कुछ तो ख्याल करो
अधिक देर से आओगे यदि
फटे कागजों के अलावा
कुछ भी नहीं पाओगे
चार दीवारों से घिरा
खाली मकान रह जाएगा
बाद में दुखी होगे
अकेले भी न रह पाओगे |

आशा