उगता सूरज धीरे-धीरे
चढ़ता ऊपर धीमी गति से
पर अस्ताचल को जाता
इतनी तीव्र गति से
कब शाम उतरी आँगन में
जान नहीं पाई वह |
ऐसा ही कुछ हुआ है
उसकी भी जिंदगी में
थी नन्ही नाजुक गुड़िया सी
ठुमक-ठुमक चलती घर में
किलकारियों से दूर बहुत
गुमसुम रहती घर बाहर में|
एकांत उसे अच्छा लगता
किसी के समक्ष जब आती
चुप रहती कुछ सकुचाती
ना कोई मित्र ना ही सहेली
रहती नितांत अकेली
वह भावनाओं का साझा
किसी से भी न कर पाई
मन में दबे हुए अहसास
भी न किसी से बाँट पाई |
उसके मन में क्या है
अंदाज कोई न लगा पाया
जब भी कोई बात उठी
उसे ही दोषी ठहराया
मन कि स्थिति है क्या उसकी
यह भी ना जानना चाहा |
वह तनाव ग्रस्त
रह कर जिये कैसे
समझ नहीं पाती
अस्त होते सूरज की तरह
खुद को डूबता पाती
विचलित मन
कुछ करने नहीं देता
यदि करना चाहे
समाज अतीत के जख्मों से
उबरने भी नहीं देता |
उबरने भी नहीं देता |
बहुत अकेली हो गई है
यही सोचती रहती है
उसका भविष्य क्या होगा
जब कोई भी सहारा न होगा
क्या कभी वह
इतनी सक्षम हो पायेगी
अपने निर्णय स्वयं लेने की
क्षमता जुटा पायेगी |
आशा
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