01 मई, 2011

हमारी काम वाली


उम्र के साथ दुकान लगी है
समस्याओं की
घर का काम कैसे हो
है सबसे कठिन आज |
नित्य नए बहाने बनाना
आए दिन देर से आना
भूले से यदि कुछ बोला
धमकी काम छोड़ने की देना
हो गयी है रोज की बात |
यदि कोई आने वाला हो
जाने कैसे जान जाती है
मोबाइल का बटन दबा
तुरंत सूचना पहुंचाती है
आज आना ना हो पाएगा
मेरा भैया घर आएगा
मुझे कहीं बाहर जाना है
कल तक ही आ पाऊँगी |
अर्जित ऐच्छिक और आकस्मिक
सभी अवकाश जानती है
उनका पूरा लाभ उठाती है
नागे का यदि कारण पूंछा
नाक फुला कर कहती है
क्या मेरे घर काम नहीं होते
या कोई आएगा जाएगा नहीं|
चाहे जैसी भी हो कामवाली
दो चार दिन ही ठीक काम करती है
फिर वही सिलसिला
हो जाता प्रारम्भ |
वे सभी एक जैसी हैं
उनसे बहस का क्या फ़ायदा
सारे दावपेच जानती हैं
हर बात का उत्तर देती हैं
अवसर मिलते ही
हाथ साफ भी कर देती हैं |
क्या करें परेशानी है
आदतें जो बिगड़ गयी हैं
ऊपर से उम्र का तकाजा
एक दिन भी उनके बिना
काम चलाना मुश्किल है
अब तो ये कामवाली
बहुत वी.आई.पी .हो गयी हैं |

आशा





30 अप्रैल, 2011

बर्फ का लड्डू


घंटी का स्वर
पहचानी आवाज

सड़क के उस पार
करती आकृष्ट उसे |
स्वर कान में पड़ते ही
उठते कदम उस ओर
रँग बिरंगे झम्मक लड्डू
लगते गुणों क़ी खान |
जल्दी से कदम बढाए
अगर समय पर
पहुंच ना पाए
लुट जाएगा माल |
पैसे की कोइ बात नहीं
आज नहीं
तो कल दे देना
पर ऐसा अवसर ना खोना |
ललक बर्फ के लड्डू की
बचत गुल्लक की
ले उडी
पर जीभ हुई लालम लाल |
फिर होने लगा धमाल
क्यूँ की
गर्मी की छुट्टी भी आई
ओर परिक्षा हुई समाप्त |
आशा




28 अप्रैल, 2011

वह तो एक खिलौना थी



उसने एक गुनाह किया
जो तुम से प्यार किया
उसकी वफा का नतीजा
यही होगा सब को पता था |
जाने वह ही कैसे अनजान रह गयी
तुम्हें जान नहीं पाई
यदि जान भी लेती तो क्या होता
प्यार के पैर तो होते नहीं
जो वह बापिस आ जाता |
उसके तो पंख थे
वह दूर तक उड़ता गया
लाख चाहा रोकना पर
इतना आगे निकल गया था
लौट नहीं पाया |
उसका रंग भी ऐसा चढ़ा
उतर नहीं पाया
बदले में उसने क्या पाया
बस दलदल ही नजर आया |
बदनामी से बच ना सकी
उसकी भरपाई भी सम्भव ना थी
अब तो नफरत भरी निगाहें ही
उसका पीछा करती रहती हैं |
पर तुम्हें क्या फर्क पड़ता है
तुम तो वफा का
अर्थ ही नहीं जानते
होता है प्यार क्या कैसे समझोगे |
वह तो एक खिलौना थी
चाहे जब उससे खेला
मन भरते ही फेंक दिया
जानते हो क्या खोया उसने
आत्म सम्मान जो कभी
सब से प्यारा था उसे |

आशा




25 अप्रैल, 2011

कहीं तो कमी है


परिवर्तन के इस युग में
जो कल था
आज नहीं है
आज है वह कल ना होगा |
यही सुना जाता है
होता साहित्य समाज का दर्पण
पर आज लिखी कृतियाँ
बीते कल की बात लगेंगी
क्यूँ कि आज भी बदलाव नजर आता है |
मनुष्य ही मनुष्य को भूल जाता है
संबंधों की गरिमा ,रिश्तों की उष्मा
गुम हो रही है
प्रेम प्रीत की भाषा बदल रही है |
समाज ने दिया क्या है
ना सोच निश्चित ना ही कोई आधार
कई समाज कई नियम
तब किस समाज की बात करें |
यदि एक समाज होता
और निश्चित सिद्धांत उसके
तब शायद कुछ हो पाता
कुछ सकारथ फल मिलते |
देश की एकता अखंडता
पर लंबी चौड़ी बहस
दीखता ऊपर से एक
पर यह अलगाव यह बिखराव
है जाने किसकी देन
वही समाज अब लगता
भटका हुआ दिशाहीन सा
वासुदेव कुटुम्बकम् की बात
लगती है कल्पना मात्र |
आशा









23 अप्रैल, 2011

यह कैसा आचरण


आज मैं अपनी ३५१ बी पोस्ट डाल रही हूँ | आशा है एक सत्य कथा पर आधारित यह रचना आपको पसंद आएगी |

थी आकर्षक अग्नि शिखा सी
आई थी ऑफिस में नई
सब का मन मोह लेती थी
अपनी मनमोहक अदाओं से |
दिखता था अधिकारी बहुत सौम्य
था अनुभवी ओर धनी व्यक्तित्व का
तथा स्वयं योग प्रशिक्षित |
उसने प्रेरित किया
योग की शिक्षा के लिये
फिर प्रारम्भ हुआ सिलसिला
सीखने ओर सिखाने का |
भावुक क्षणों में वह बौस को गुरू बना बैठी
ऑफिस आते ही नमन कुर्सी को कर
चरण रज माथे लगाती
तभी कार्य प्रारम्भ करती |
सभी जानते थे क्या हों रहा था
वह मर्यादा भी भूल चुकी थी
आगे पीछे घूमती थी
स्वविवेक भी खो बैठी थी |
जब मन भर गया बौस का
उससे दूरी रखने लगा
वह मिलने को भी तरस गयी
अपना आपा खो बैठी |
पर एक दिन अति हो गयी
गाडी रोक कर बोली
मैं जाने नहीं दूंगी
मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी |
सभी यह दृश्य देख रहे थे
मन ही मन में
कुछ सोचा उसे धक्का दिया
पागल कहा और चल दिया |
जो कभी विहंसती रहती थी
थी चंचल चपला सी
अब बासी फूल सी
दिखने लगी |
फिर भी इतिश्री नहीं हुई
करा दिया उसका स्थांतरण
दूरस्थ एक शहर में
केवल अपने प्रभाव से |
मझा हुआ खिलाड़ी था
जानता था किसको कैसे जीता जाता है
अपने पद का दुरूपयोग कर
कैसे लाभ लिया जाता है |
आशा








21 अप्रैल, 2011

अब तक तलाश जारी है


कुछ भी अधिक नहीं चाहा
जो मिला उसी को अपनाया
फिर भी जब मन में झांका
खुद को बहुत अकेला पाया |
सामंजस्य परिस्थितियों से
आज तक ना हो पाया
अपनों ने जब भी ठुकराया
गैरों ने अपना हाथ बढ़ाया |
तब भी सोच नहीं पाया
है कौन अपना कौन पराया
कब कोई भीतर घात करेगा
यह भी ना पहचान पाया |
जब भी गुत्थी सुलझानी चाही
कोई अपना नजर ना आया
है स्वार्थी दुनिया सारी
फिर भी स्वीकार ना कर पाया |
कई बार विचार आता है
सब एक से नहीं होते
कोई तो ऐसा होगा
जो निस्वार्थ भाव लिए होगा |
अब तक तलाश जारी है
जाने कब कौन
किस रूप में आए
पूर्ण रूप से अपनाए |

18 अप्रैल, 2011

कई कंटक भी वहाँ होते हें


ना तो जानती थी
ना ही जानना चाहती थी
वह क्या चाहती थी
थी दुनिया से दूर बहुत
अपने में खोई रहती थी |
कल क्या खोया
ओर कल क्या होगा
तनिक भी न सोचती थी
वर्त्तमान में जीती थी |
जो भी देखती थी
पाने की लालसा रखती थी
धरती पर रह कर भी
चाँद पाना चाहती थी |
क्या सही है वह क्या गलत
उस तक की पहचान न थी
अपनी जिद्द को ही
सर्वोपरी मानती थी |
हर बात उसकी पूरी करना
संभव न हों पाता था
अगर कहा नहीं माना
चैन हराम होजाता था |
जब कठोर धरातल
पर कदम रखा
थी बिंदास
कुछ फिक्र न थी |
जिन्दगी इतनी भी
आसान न थी
गर्म हवा के झोंकों ने
उसे अन्दर तक हिला दिया |
उठापटक झगडे झंझट
अब रोज की बात हों गयी
तब ही वह समझ पाई
सहनशीलता क्या होती है |
जब मन पर अंकुश लगाया
बेहद बेबस ख़ुद को पाया
तभी वह जान पाई
माँ क्या कहना चाहती थी |
जिन्दगी ने रुख ऐसा बदला
पैरों के छाले भी
अब विचलित नहीं करते
ठोस धरा पर चलती है
क्यूँ की वह समझ गयी है
जीवन केवल फूलों की सेज नहीं
कई कंटक भी वहाँ होते हें |

आशा