31 मई, 2011
भरम टूट ना जाए
29 मई, 2011
कुछ समय आदिवासियों के संग
था दिन हाट का
कुछ सजे संवरे आदिवासी
करने आए थे बाजार
थीं साथ महिलाएं भी |
मैं दरवाजे की ओट से
देख रही थी हाट की रौनक
उन्हें जैसे ही पता चला
कुछ मिलनें आ गईं
पहले सोचा क्या बात करू
फिर लोक गीत सुनना चाहे
उनकी मधुरता लयबद्धता
आज तक भूल नहीं पाई|
थे गरीब पर मन के धनी
गिलट के जेवर ही काफी थे
रूप निखारने के लिए
केश विन्यास की विशिष्ट शैली
मन को आकृष्ट कर रही थी |
धीरे से वे पास आईं
घर आने का किया आग्रह
फिर बोलीं जरूर आना
स्वीकृति पा प्रसन्न हो चली गईं |
प्रातः काल हुए तैयार
कच्ची सड़क पर उडाती धूल
गराड पर चलती हिचकोले खाती
आगे बढ़ने लगी जीप|
जब मुखिया के घर पहुंचे
हतप्रभ हुए स्वच्छता देख
था झोंपडा कच्चा
पर चमक रहा था कांच सा |
द्वार सजा मांडनों से
भीतरी दीवार सजी
तीर कमान और गोफन से
मक्का की रोटी और साग
साथ थी छाछ और स्नेह का तडका
वह स्वाद आज तक नहीं भूली |
दिन ढला शाम आई
फिर रात में चांदनी नें पैर पसारे
सज धज कर सब आए मैदान में |
ढोल की थाप पर कदम से कदम मिला
गोल घेरे में मंथर गति से थिरके
नृत्य और गीतों का समा था ऐसा
पैर रुकने का नाम न लेते थे |
एक आदिवासी बाला ने मुझे भी
नृत्य में शामिल किया
वह अनुभव भी अनूठा था
रात कब बीत गयी पता ही नहीं चला |
सुबह हुई कुछ बालाओं नें
अपनी विशिष्ट शैली में
मेरा केश विन्यास किया
कच्चे कांच की मालाओं से सजा
काजल लगाया उपहार दिए
वह साज सज्जा आज भी भूली नहीं हूँ
वह प्यार वह मनुहार
आज भी बसी है यादों में |
अगली हाट पर
भिलाले आदिवासी भी आए
बहुत आग्रह से आमंत्रित किया
पर हम नहीं जा पाए
एक अवसर खो दिया उनको जानने का
उनका प्रेम पाने का |
आशा
28 मई, 2011
अन्तर मन
है ऐसा आखिर क्या |
जो कोइ नहीं देखता
तुझे नहीं जानता |
हल्की सी छाया दिखती
तेरा वजूद जताती |
तूने भी न पहचाना
पर मैं उसे देख पाया |
देखा तो तूने भी उसे
पर अनदेखा किया |
मुँह और फेर लिया
यह क्या उचित था |
यदि उलझन नहीं
है क्या यह बेचारगी |
तू कितना सोचती है
अंतस में खोजना |
तभी तो जान पाएगी
कुछ कहना सुनाना |
फिर सोचना गुनना
सक्षम तभी होगी |
अपने को समझेगी
ख़ुद को पा जाएगी |
चमकेगी चहकेगी
रूठी ना रहेगी |
आशा
26 मई, 2011
ज़रा सोच कर देखो
सारे सुख सारी सुविधाएं
पा कर भी कुछ नहीं किया
झूठी सच्ची बातों से
सारे घर को बहकाया |
हर सुविधा का दुरूपयोग किया
खुद को बहुत योग्य समझा
सभी की सलाहों को
समय की बरबादी समझा |
इधर उधर यारी दोस्ती में
बहुमूल्य समय बरबाद किया
क्या यह भी कभी सोचा
आखिर भविष्य क्या होगा |
यह भी जानना नहीं चाहा
बीता कल लौट कर नहीं आता
जब अपनी अंक सूची दिखाओगे
दस जगह ठुकराए जाओगे |
आगे बढ़ने के लिए
कोई रास्ता नहीं होगा
हर ओर अन्धकार होगा
तब तक बहुत देर हो जाएगी |
आज की मौज मस्ती
और यही भटकाव
जीवन भर सालता रहेगा
दुःख के सिवाय कुछ भी
प्राप्त न हो पाएगा |
अपने को नियंत्रित रखने के लिए
सफलता पाने के लिए
प्रलोभनों से बचने के लिए
कष्ट तो उठाने पड़ते हैं
पर जब मीठा फल मिलता है
आनंद कुछ और होता है |
आशा
24 मई, 2011
प्रकृति की गोद में
मैं चाहती हूँ
सोचती हूँ दूर कहीं जंगल में
घनघोर घटाओं से आच्छादित
व्योम तले बैठ नयनों में समेट
उस सौंदर्य को
अपने मन में छुपा लूं
और उसी में खो जाऊं |
यह भूल जाऊं कि मैं क्या हूँ
मेरा जन्म किस लिए हुआ
इस घरा पर आने का
उद्देश्य पूरा हुआ या अधूरा रहा |
बस अपने आस पास
प्रकृति का वरद हस्त पा
मन की चंचलता से
बेचैनी से कहीं दूर जा
एक नए आवरण से
खुद को ढका पाऊँ |
सताए ना भूख प्यास
ना ही रहूँ कभी उदास
चिंता चिता ना बन जाए
केवल हो चित्त शांत
खुलें अंतर चक्षु व मुंह से निकले
है यही जीवन का सत्व
बाकी है सब निरर्थक |
मधुर कलरव पक्षियों का
चारों ओर छाए हरियाली
हो कलकल करती बहती जल धारा
उसी में खो जाऊं |
हर ऋतु का अनुभव करू
आनंद लूं
एकाकी होने के दुख से
दूर रहूँ सक्षम बनूँ
दुनियादारी से दूर बहुत
सुरम्य वादियों में खो जाऊं
वहीँ अपना आशियाना बनाऊँ |
आशा
प्रेम ही जीवन है
चाहे जहां जाते हो
इधर उधर भटकते हो
जब स्थाईत्व नहीं होगा
सुकून कहाँ से पाओगे |
जिंदगी क्षण भंगुर है
उसका कोई ठिकाना नहीं
बिना प्रेम अधूरी है
यह कैसे समझ पाओगे |
मेरे पास आओ कुछ पल ठहरो
दो बोल प्यार के बोलो
मन में छिपी भावना को
पूर्ण रूप से स्वीकार करो |
मन का बोझ हल्का होगा
फिर भी मन यदि ना माने
और बेचैनी बढ़ जाए
चाहे जहां चले जाना |
पुरानी कटु बातों को
दोहराने से क्या लाभ
जब उन पर ध्यान नहीं दोगे
वे विस्मृत होती जाएँगी |
मीठी यादों में जब खो जाओगे
शान्ति का अनुभव करोगे
संसार बहुत सुंदर लगेगा
पराया भी अपना लगेगा |
प्रेम ही तो जीवन है
जब शांत चित्त से सोचोगे
स्थिर मन हो जाओगे
फिर इसे ना भूल पाओगे |
जिंदगी आनंद से भरपूर होगी
पूर्ण प्रेम की अनुभूति होगी
एक नई कहानी बनेगी |
आशा
22 मई, 2011
बदलता परिवेश
प्रातःकाल अखवार की सुर्खियाँ
प्रथम पृष्ठ पर कई समाचार
ऊपर से नीचे तक
समूचा हिला जाते हैं |
यह साल भी अनोखा निकला
मंहगाई अनियंत्रित हुई
सारी सीमां पार कर गयी
हर पखवाड़े के बाद और बढ़ती गयी |
यह तो पहली बार देखा
कैसे करें इसे अनदेखा
पेट्रोल महंगा होता गया
एक ही वर्ष में ९ बार कीमत बड़ी |
फिर भी खपत कम ना हुई
बढ़ती ही गयी
साथ ही वाहनों की
संख्या भी बढ़ी |
ना जाने कैसे लोग
अपने शौक पूरे करते हैं
काला धन बाहर आता है
या ऋण में डूबे रहते हैं |
अर्थ शास्त्र के नियम भी
अब पुराने लगते हैं
है कितना निर्भर व्यक्ति
भौतिक सुविधाओं पर |
उनके बिना जीना
किसी को अच्छा नहीं लगता
गरीब हो या अमीर
उनका गुलाम होता जाता |
अब सभी सुविधाओं का
आवश्यक सूची में जुडना
लगभग निश्चित सा हो गया है
आवश्यकता ,सुविधा और विलासिता में अंतर
नगण्य सा हो गया है |
आशा