13 मई, 2013
11 मई, 2013
विराम सृजन का
कई बिम्ब उभरे बिखरे
बीती घटनाएं ,नवीन भाव
लुका छिपी खेलते मन में
बहुत छूटा कुछ ही रहा
जिज्ञासा को विराम न मिला
अनवरत पढ़ना लिखना
चल रहा था चलता रहा
कुछ से प्रशंसा मिली
कई निशब्द ही रहे
अनजाने में मन उचटा
व्यवधान भी आता रहा
मानसिक थकान भी
जब तब सताती
जाने कितना कुछ है
विचारों के समुन्दर में
कैसे उसे समेटूं
पन्नों पर सजाऊँ
बड़ा विचित्र यह
विधान विधि का
विधान विधि का
असीमित घटना क्रम
नित्य नए प्रयोग
यहाँ वहां बिखरे बिखरे
सहेजना उनको
लगता असंभव सा तभी
दिया विराम लेखन को
जो पहले लिखा
उसी पर ही
उसी पर ही
मनन प्रारम्भ किया
यादें सजीव हो उठीं
उन में फिर से खोने लगा
अशक्त तन मन को
उसी में रमता देख
वहीं हिचकोले लेने लगा
शायद है यही पूर्णविराम
सृजन की दुनिया का |
आशा
08 मई, 2013
आधुनिक बिटिया
पालापोसा बड़ा किया
जाने कितनी रातें
आँखों आँखों में काटीं
पर उसे कष्ट न होने दिया
पढ़ाया लिखाया
सक्षम बनाया
जो हो सकता था किया
पर रही पालने में कही कमीं
बेटी बेटी न रही
कितनी बदल गयी
जिस पर रश्क होता था
कहीं गुम हो गयी
जाने कब खून सफेद हुआ
संस्कार तक भूली
धन का मद ऐसा चढ़ा
खुद में सिमट कर रह गयी
यही व्यवहार उसका
मन पर वार करता
आहत कर जाता
हो अपना खून या पराया
रिश्ता तो रिश्ता ही है
सूत के कच्चे धागे सा
अधिक तनाव न सह पाता
झटके से टूट जाता
ममता आहत होती
दूरी बढ़ती जाती |
06 मई, 2013
चिड़िया
एक चिड़िया नन्हीं सी
टुवी टुवी करती
प्रसंनमना उड़ती फिरती
डालियों पर
एक से दूसरी पर जाती
लेती आनंद झूलने का
एकाएक राह भूली
झांका खिड़की से
भ्रमित चकित
कक्ष में आई
चारो ओर दृष्टिपात करती
पहले यहाँ वहां बैठी
सोच रही वह कहाँ आ गयी
दर्पण देख रुकी
टुवी टुवी करती
मारी चोंच उस पर
आहत हो कुछ ठहरी
फिर वार पर वार किये
मन ने सोचा
लगता कोइ दुश्मन
जो उसे डराना चाहता
पर यह था केवल भ्रम
उसके अपने मन का
यूं ही आहत हुई
जान नहीं पाई
कोई अन्य न था
था उसका ही अक्स
जिससे वह जूझ रही थी
बिना बात यूं ही
भयभीत हो रही थी |
आशा
04 मई, 2013
आनंद कुछ और ही होता
ले ज्योत्सना साथ में
मयंक चला भ्रमण करने
अनंत व्योम के विस्तार में
सभी चांदनी में नहाए
ज्योतिर्मय हुए
क्या पृथ्वी क्या आकाश
पर पास के अभयारण्य में
यह सब कहाँ
धने पेड़ों की टहनियां
आपस में बात करतीं
आपस की होती सुगबुगाहर
विचित्र सी आवाज से
मन में भय भरती
सांय सांय चलती हवाएं
आहट किसी अनजान के
पद चाप की
अदृश्य शक्ति का अहसास करा
भय दुगुना करती
कभी छन कर आती रौशनी में
कोई छाया दिखाई देती
मन में भय उपजता
सही राह न दिखाई देती
एकाएक ठिठकता सोचता
कहीं यह भ्रम तो नहीं
साहस कर कदम आगे बढाता
फिर भी अकेलापन सालता
काश कोइ साथ होता
राह तो दिखाता
चांदनी रात में तब घूमने का
आनंद कुछ और ही होता |
आशा
02 मई, 2013
बेचैन मन
सारे पखेरू उड़ गए
हुआ घोंसला खाली
ठूंठ अकेला रह गया
छाई ना हरियाली
आँगन सूना देख
मेरा मन क्यूं घबराए ना
क्यूं गाऊँ मैं गीत
मुझे कुछ भी भाए ना
सभी व्यस्त अपने अपने में
समय का अभाव बताते
रहते अपनी दुनिया में
उनकी ममता जागे ना
मैं अकेली रह गयी
अक्षमता का बोध लिए
पर डूबी माया मोह में
यह बंधन छूटे ना
यह जन्म तो बीत चला
तेरी पनाह में
है अटूट विशवास तुझ पर
पर मन स्थिर ना रह पाता
अभी है यह हाल
आगे न जाने क्या होगा |
30 अप्रैल, 2013
अनुगूंज
वहीं तुझे पाती हूँ
तेरी गूँज सुनाई देती
सृष्टि के कण कण में |
ऊंची नीची पगडंडी पर
पहाड़ियों से धिरी वादी में
बढ़ता कलरव परिंदों का
मन हुआ गाने का
उनका साथ निभाने का
जैसे ही स्वर छेड़ा
अपने ही स्वर गूंजे
प्रत्यावर्तित हुए |
विचारों में खोई आगे बढ़ी
एकांत में बैठ सरिता तट पर
देखा उर्मियाँ टकराती चट्टान से
तभी विशिष्ट ध्वनी होती
कानों में गुंजन करती |
मैंने पाया एक सुअवसर
प्रकृति के सानिध्य का
सुना संगीत साथ देते
कलकल ध्वनि करते जल का |
तभी दूर से आती ध्वनि
व्यवधान बनी कर्ण कटु लगी
टूटी श्रंखला विचारों की
सोचा यह कहाँ से आई |
अनायास बादल गरजे
बादलों के गर्जन तर्जन की
टकराई ध्वनि पहाड़ियों से
हुई प्रत्यावर्तित
गूँज उसकी तीव्र हुई
क्या यही अनुगूंज है ?
शब्द नश्वर नहीं होते
जब भी कुछ कहा जाता
वे विलीन हो जाते
किसी निसर्ग में
कहीं न कहीं सुनाई देती
उनकी अनुगूंज भुवन में
जिसे हम अनुभव करते
अनुगूँज जब होती
सत्य जीवन का उजागर होता
जिसे भौतिक और नश्वर
जगत न जान पाता |
आशा
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