14 मई, 2013

मैं और शब्द

सृष्टि के अनछुए पहलू 
उनमें झांकने की 
जानने की ललक
बारम्बार आकृष्ट करती 
नजदीकिया उससे बढ़तीं 
वहीं का हो रह जाता 
आँचल में उसके 
छिपा रहना चाहता 
भोर का तारा देख 
सुबह का भान होता 
दिन कब कट जाता 
जान न पाता
तारों भरी रात में 
सब लगते विशिष्ट 
कहीं जुगनूं चमकते 
उलूक ध्वनि करते 
चिमगादड़ जतातीं 
अपनी भी उपस्थिति वहां 
जो दृश्य सजोए वहां 
बंद किये आँखों में 
भावनाओं पर ऐसे छाए 
अनेकों रंग नजर आये 
ह्रदय पटल पर हुए साकार 
एकांत पलों में अद्भुद सुकून पा
मन फिर वहीं जाना चाहता 
कल्पना के पंख लगा 
 ऊंची उड़ान भरता 
अनोखे विचार उपजते 
तब शब्द शब्द नहीं रहते 
उनमें ही वे भी रंग जाते 
फिर लिवास नवीन  पहन
सज धज कर नया रूप धर 
सबके समक्ष आते |
आशा






13 मई, 2013

कामवाली बाई

 


शादी के मौसम में
व्यस्त सभी बाई रहतीं
सहन उन्हें करना पड़ता
बिना उनके रहना पड़ता
उफ यह नखरा बाई का
आये दिन होते नागों का
चाहे जब धर बैठ जातीं
नित नए बहाने बनातीं
यदि वेतन की हो कटौती
टाटा कर चली जातीं
 लगता है जैसे हम गरजू हैं
उनके आश्रय में पल रहे हैं
पर कुछ कर नहीं पाते
मन मसोस कर रह जाते |
आशा

11 मई, 2013

विराम सृजन का



शनेशने बढ़ते जीवन में 
कई बिम्ब उभरे बिखरे 
बीती घटनाएं ,नवीन भाव 
लुका छिपी खेलते मन में 
बहुत छूटा कुछ ही रहा 
जिज्ञासा को विराम न मिला 
अनवरत पढ़ना लिखना 
चल रहा था चलता रहा 
कुछ से प्रशंसा मिली 
कई निशब्द ही रहे 
अनजाने में मन उचटा 
व्यवधान भी आता रहा
मानसिक थकान भी 
जब तब  सताती
जाने कितना कुछ है 
विचारों के समुन्दर में 
कैसे उसे समेटूं 
पन्नों पर सजाऊँ 
बड़ा विचित्र यह
 विधान विधि का
असीमित घटना क्रम 
नित्य नए प्रयोग 
यहाँ वहां बिखरे बिखरे 
सहेजना उनको 
लगता असंभव सा तभी
दिया विराम लेखन को 
जो पहले लिखा
 उसी पर ही
मनन प्रारम्भ किया 
यादें सजीव  हो उठीं 
उन में फिर से खोने लगा  
अशक्त तन मन को
 उसी में रमता देख 
वहीं हिचकोले लेने लगा 
शायद है यही पूर्णविराम 
सृजन की दुनिया का |
आशा



08 मई, 2013

आधुनिक बिटिया


खून पसीने से सींचा 
पालापोसा बड़ा किया 
जाने कितनी रातें
 आँखों आँखों में काटीं
पर उसे कष्ट न होने दिया 
पढ़ाया लिखाया 
सक्षम बनाया 
जो हो सकता था किया
पर रही पालने में कही कमीं 
बेटी बेटी न रही 
कितनी बदल गयी 
जिस पर रश्क होता था 
कहीं गुम हो गयी
जाने कब खून सफेद हुआ 
संस्कार तक भूली 
धन का मद ऐसा चढ़ा
खुद में सिमट कर रह गयी 
यही व्यवहार उसका 
मन पर वार करता
 आहत कर जाता 
हो अपना खून या पराया 
रिश्ता तो रिश्ता ही है 
 सूत के कच्चे  धागे सा 
अधिक तनाव न सह पाता
 झटके से टूट जाता 
ममता आहत होती
दूरी बढ़ती जाती |




06 मई, 2013

चिड़िया

एक चिड़िया नन्हीं सी 
टुवी टुवी करती
प्रसंनमना उड़ती फिरती 
डालियों पर 
एक से दूसरी पर जाती 
लेती आनंद झूलने का 
एकाएक राह भूली 
झांका खिड़की से 
भ्रमित चकित 
कक्ष में आई 
चारो ओर दृष्टिपात करती
पहले यहाँ वहां बैठी 
सोच रही  वह कहाँ आ गयी 
दर्पण देख रुकी 
टुवी टुवी करती
मारी चोंच उस पर 
आहत हो कुछ ठहरी
फिर वार पर वार किये 
मन ने सोचा 
लगता कोइ दुश्मन 
जो उसे डराना चाहता 
पर यह था केवल भ्रम
उसके अपने मन का 
यूं ही आहत हुई 
जान नहीं पाई 
कोई अन्य न था 
था उसका ही अक्स 
जिससे वह जूझ  रही थी 
बिना बात यूं ही 
भयभीत हो रही थी |
आशा




04 मई, 2013

आनंद कुछ और ही होता

तारों भरे आकाश में 
ले ज्योत्सना साथ में 
मयंक चला भ्रमण करने 
अनंत व्योम के विस्तार में 
सभी चांदनी में नहाए 
ज्योतिर्मय हुए 
क्या पृथ्वी क्या आकाश 
पर पास के अभयारण्य में 
यह सब कहाँ 
धने पेड़ों की टहनियां
 आपस में बात करतीं
आपस की होती सुगबुगाहर 
विचित्र सी आवाज से
मन में भय भरती
सांय सांय चलती हवाएं 
आहट किसी अनजान के 
पद चाप की
अदृश्य शक्ति का अहसास करा 
भय दुगुना करती 
कभी छन कर आती रौशनी में 
कोई छाया दिखाई देती 
मन में भय उपजता 
सही राह न दिखाई देती 
एकाएक ठिठकता सोचता 
कहीं यह भ्रम तो नहीं 
साहस कर कदम आगे बढाता 
फिर भी अकेलापन सालता 
काश कोइ साथ होता 
राह तो दिखाता 
चांदनी रात में तब घूमने  का
आनंद कुछ और ही होता |
आशा





02 मई, 2013

बेचैन मन


 सारे पखेरू उड़ गए
हुआ घोंसला खाली
ठूंठ अकेला रह गया
छाई ना हरियाली
आँगन सूना देख
मेरा मन क्यूं घबराए ना
क्यूं गाऊँ मैं गीत
मुझे कुछ भी भाए ना
सभी व्यस्त अपने अपने में
समय का अभाव बताते
रहते अपनी दुनिया में
उनकी ममता जागे ना
मैं अकेली रह गयी
अक्षमता का बोध लिए
पर डूबी माया मोह में
यह बंधन छूटे ना
यह जन्म तो बीत चला
तेरी पनाह में
है अटूट विशवास तुझ पर
पर मन स्थिर ना रह पाता
अभी है यह हाल
आगे न जाने क्या होगा |