15 जुलाई, 2013
13 जुलाई, 2013
कई रूप धरती के
ऋतुओं के आने जाने से
दृश्य बदलते रहते
धरती के सजने सवरने के
अंदाज बदलते रहते |
उमढ घुमड़ कर आते
काली जुल्फों से लहराते बदरा
प्यार भरे अंदाज में
सराबोर कर जाते बदरा
वह हरा लिवास धारण करती
धानी चूनर लहराती
खेतों की रानी हो जाती |
वासंती बयार जब चलती
वह फिर अपना चोला बदलती
पीत वसन पहने झूमती
नज़र जहां तक जाती
वह वासंती नज़र आती |
जब सर्द हवा दस्तक देती
वह धवल दिखाई देती
प्रातः काल चुहल करती
रश्मियों के संग खेलती
उनके रंग में कभी रंगती
तो कभी श्वेता नजर आती |
पतझड़ को वह सह न पाती
अधिक उदास हो जाती
डाली से बिछुड़े पत्तों सी
वह पीली भूरी हो जाती
विरहनी सी राह देखती
अपने प्रियतम के आने की |
ग्रीष्म ऋतु के आते ही
तेवर उसके बदल जाते
वह तपती अंगारे सी
परिधान ऐसा धारण करती
कुछ अधिक सुर्ख हो जाती
धरती नित्य सजती सवरती
नए रूप धारण करती |
आशा
12 जुलाई, 2013
11 जुलाई, 2013
किस पर श्रद्धा
कई मुखौटे लगे या नकाब से ढके
असली चहरे पहचाने नहीं जाते
दोहरा जीवन जीते लोग
व्यवहार भी अलग अलग
उजागर होती जब असलियत
उद्विग्न होते छटपटाते
कितने कुरूप नज़र आते
यदि पहले से जानते
कितने कुत्सित भाव भरे हैं मन में
एक भी शब्द सम्मान का
लव तक न आता
दुनिया में जो चल रहा है
ध्यान उस पर भी न जाता
मन नफ़रत से न भरता
दुनिया की हकीकत
यदि जान ली होती
चेहरे की असलियत
पहचान ली होती
इतने सदमें से न गुजरना पड़ता
किसी अपने से सलाह यदि लेली होती
यह दिन न देखना पड़ता
अब किसी पर ऐतवार नहीं होता
हर जिस्म के अन्दर
एक भूखा भेडिया दिखाई देता
सत्य क्या और असत्य क्या
जानने की जिज्ञासा शांत नहीं होती
चैन मन का हर लेती
सभ्यता शर्मसार होती नजर आती
गहरी व्यथा छोड़ जाती
किसी पर श्रद्धा रखने का
मन नहीं होता |
मन नहीं होता |
09 जुलाई, 2013
सदुपयोग समय का
सारा दिन व्यर्थ गवाया
कोइ काम रास न आया
पर पश्च्याताप अवश्य
बारम्बार हुआ
क्यूं नहीं सदउपयोग
समय का कर पाया |
पर अब क्या फ़ायदा
दुःख मनाने से
मन में संताप जगाने से
बीता समय लौटेगा नहीं
जो कुछ पीछे छूट गया
वह भी हाथ में आना नहीं |
एक शिक्षा अवश्य मिली
समय का महत्व समझ
उसे शीश के अग्र भाग से
पकड़ो
एक एक पल का सदुपयोग करो
मन लगे या न लगे
कर्म का महत्व समझो |
आशा
|
07 जुलाई, 2013
मकसद
मैंने चुना है एक मकसद
वहां तक पहुँचने का
एकता के सूत्र में
सब को बांधने का
नहीं जानती कहाँ तक
सफलता पाऊँगी
कितनी सीड़ी चढ़ पाऊँगी |
यह तो जानती हूँ
यह तो जानती हूँ
करना होगा
कठिन प्रयास
पूर्ण लगन से
तन मन धन से
पर नहीं जानती
कितना बाँध पाऊँगी गैरों को
अपनेपन के बंधन में |
समझ रही हूँ
गैरों से व्यवहार अपनों सा
इतना सहज भी नहीं
कई बाधाएं
पथ बाधित करेंगी
यदि उनसे भयभीत हुई
मन कुंठित हुआ
तब मकसद
पूर्ण न हो पाएगा |
पर इतना जानती हूँ
कदम पीछे हटाना
मैंने नहीं सीखा
पथ से भटक जाना
मुझे नहीं आता |
हूँ इसीलिए आशान्वित
जो मार्ग चुना है मैंने
अडिग उसी पर रहूँगी
एकता का बधन
इतना सुदृढ़ होगा
कभी टूट न पाएगा |
आशा
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