19 जुलाई, 2016
17 जुलाई, 2016
सबला नारी
पढ़ने लिखने का
अरमान बहुत है
पर समय नहीं मिलता
फिर भी समय
खोज ही लेती हूँ
जब लिखने का मन होता है
कागज़ ले प्रयत्न करती हूँ
पेन्सिल से लिखती मिटाती
पर कोई शिक्षक नही मिलता
जो प्यार से समझाए
मुझे सही राह दिखलाए
अब मैं बच्ची नहीं हूँ
अपना हित पहचानती हूँ
भारत की हूँ नागरिक
अपने को कम न आंकती
धीरे धीरे यत्न करूंगी
तभी सबला हो पाऊँगी
अपने हित अहित जान
पूर्णता प्राप्त कर पाऊंगी |
आशा
अरमान बहुत है
पर समय नहीं मिलता
फिर भी समय
खोज ही लेती हूँ
जब लिखने का मन होता है
कागज़ ले प्रयत्न करती हूँ
पेन्सिल से लिखती मिटाती
पर कोई शिक्षक नही मिलता
जो प्यार से समझाए
मुझे सही राह दिखलाए
अब मैं बच्ची नहीं हूँ
अपना हित पहचानती हूँ
भारत की हूँ नागरिक
अपने को कम न आंकती
धीरे धीरे यत्न करूंगी
तभी सबला हो पाऊँगी
अपने हित अहित जान
पूर्णता प्राप्त कर पाऊंगी |
आशा
16 जुलाई, 2016
बेटी
बेटी मेरे घर की शोभा, आँगन में तुलसी सी
घर बाहर उजियारा करती ,दीपशिखा की लौ सी
हर क्षेत्र में हो अग्रणी, बिंदी सी सजती मस्तक पर
जहां कहीं वह कदम रखती, कोई नहीं दूसरी उससी |
२-
सुजान सुशील जिसकी बेटी
गर्व से वह सब से कहती
बड़े भाग्य से पाया मैंने
लाखों में एक है मेरी बेटी |
३-
जिस दिन उसने जन्म लिया
घर मेरा परिपूर्ण हुआ
बिन बेटी वह था अधूरा
अब जा कर वह पूर्ण हुआ |
आशा
सुजान सुशील जिसकी बेटी
गर्व से वह सब से कहती
बड़े भाग्य से पाया मैंने
लाखों में एक है मेरी बेटी |
३-
जिस दिन उसने जन्म लिया
घर मेरा परिपूर्ण हुआ
बिन बेटी वह था अधूरा
अब जा कर वह पूर्ण हुआ |
आशा
15 जुलाई, 2016
13 जुलाई, 2016
जिन्दगी की पतंग
जिन्दगी की पतंग
बंधी साँसों की डोर से
उड़ चली आसमान में
डोर कब कटनी है
नहीं जानती
उड़ान भरती बिंदास
अनजाने परिवेश में
मन में अटूट विश्वास लिए
उसने हार कभी न मानी
ना ही कभी मानेगी
ऊंचाई छूना चाहती है
है विकल आगे जाने को
डोर है मजबूत
यूं ही नहीं टूटेगी
मंजिल तक पहुंचा कर ही
किसी कमजोर क्षण में
झटके से टूटेगी
या झटके खाएगी
कहीं बीच में लटका देगी
यह है मात्र कल्पना
सच से बहुत अलग
कोई नहीं जानता
कितनी साँसें लिखी हैं
उसके भाग्य में |
आशा
12 जुलाई, 2016
बरखा ( हाईकू )
घन गरजा
टकराए बदरा
आई बरखा |
टकराए बदरा
आई बरखा |
सावन आया
फुहार बरखा की
भली लगती |
फुहार बरखा की
भली लगती |
नदी उफनी
भरे ताल तलैया
आई बरखा |
झूमती आईं
सावन की घटाएं
धरा प्रसन्न |
जल बरसा
शांत धरा की गर्मीं
तरु भी खुश |
आशा
भरे ताल तलैया
आई बरखा |
झूमती आईं
सावन की घटाएं
धरा प्रसन्न |
जल बरसा
शांत धरा की गर्मीं
तरु भी खुश |
आशा
09 जुलाई, 2016
हाथ मेरे कुछ भी न आया
मैंने समय व्यर्थ ही गवाया
हाथ मेरे कुछ भी न आया
इस बात से ही प्रसन्न हूँ कि
मेरा नाकाम होना
किसी के काम तो आया
मेरी हार उसकी जीत में बदली
बस इसी ने मेरा दिल दुखाया
फिर भी उसे बधाई दी यह सोच
मेरा नाकाम होना
किसी के काम तो आया
हुआ नाकाम जिस के कारण
उसी से दिल लगा बैठा
जब उसी से हार मिली
मन ही अपना गवा बैठा |
आशा
आशा
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