हूँ गुनहगार
अवगुणों की खान
जितनी बार मन को टटोला
हर बार अपनी कमियों को देखा
अनदेखा न कर सकी
आत्म मंथन किया |
अवगुणों में कोई कमीं न आई
सुधार की किरणे
उन्हें छू तक न पाईं
अब तो आशा छोड़ चुकी हूँ
झूटी दिलासा से क्या होगा |
जब बीमारी लाइलाज हो
समूल नष्ट कर देना है बेहतर
मैं अब जान गई हूँ
अपने आप को पहचान गई हूँ |
चाहे जितने यत्न करू
सभी यूंही जाया हो जाते
लाइलाज व्यक्ति को
भाग्य भरोसे छोड़ा जाए
या कोई इलाज किया जाए
उसे कोई फर्क नहीं पड़ता |
वह यदि भाग्यवादी हो जाए मुस्कुराए
नकली मुखौटा चहरे पर लगाए
उसके मन में क्या उथलपुथल होती है
वही जान पाता है |
अपनी सोच के विकल्प को
सही ढंग से पहचान कर
वही खोज सकता है
सही दिशा दे सकता है
कोई अन्य नहीं |
आशा