दोपहर में गर्म धरा पर रखते ही कदम
एहसास हुआ कदमों के जलने का
सोचा लोग भी तो कार्य करते है
नंगे
पैर तपती दोपहर में |
क्या वे बचे रहते हैं सूर्य की तपिश से ?
जब वे सहन कर सकते है उसे
फिर
मैं क्यूँ नहीं ?
क्या फर्क है दौनों में ?
क्या इस लिए कि वे इसी धरती से जुड़े हुए हैं
पर मुझे गलतफहमी है
कि
मेरे पैर जमीन पर टिक नहीं पाते
शायद मुझे पाला गया है बड़ी नजाकत से |
थी सच में मुझे बड़ी भ्रान्ति कुछ विशेष तो है
मुझमें
पर जब सख्त तपती बंजर धरा पर कदम पड़े
सारी गफलत दूर हो गई
जान गई मैं भी हूँ उनमें से एक |
बस फर्क है इतना कि
वे
हैं मेंहनतकश व् जुझारू
बंजर धरती पर खेले बड़े हुए
छोटी मोटी चोट से भयभीत नहीं हुए |
मैं रही
घर में मौम की गुडिया सी
ठण्ड से बचती बचाती वर्षा में भीग जब जाती
बदलते मौसम का वार तक सहन न कर पाती
अपने को कठिन कार्य में अक्षम पाती |
आशा