राह देखती रही तुम्हारी
पर तुम न आए
मुझसे हो क्यूँ क्रोधित
समझती हूँ मैं भी |
यदि बात नहीं करनी थी
न सामने आते
पुराने घावों को
उघाड़ते ही क्यों ?
केवल एक झलक दिखाई दी
यह किस लिए
क्या जरूरी है
हर बात बताऊँ तुम्हें |
जैसी स्वतंत्रता तूमने चाही
वैसी ही मैंने अपनाई
क्या नहीं है यही नियम मेरे लिए |
समाज से डरने के लिए
मुझे ही बलि का बकरा बनाया
सही बात पर भी
मेरा नाम मिटाया
दिल के श्याम पट से |
कैसा विधान अपनाया तुमने
जो वादे किये थे मुझसे
फिर क्यों न पूरे किये तुमने |
कभी ठन्डे मन से सोचना
क्या अकेली मेरी ही खता रही सारी
या मुझे उलझाया गया है
किसी साजिश में |
नहीं चाहती अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
मुझे कुछ तो बुद्धि आई होगी
देख कर दुनिया के छल प्रपन्च
उनका पीछा करता मानव देख |
मन मेरा भी होना चाहता
सराबोर आधुनिकता के रंग में
पर बोझ से दबा
है इसी उपक्रम में |
क्या चाहती हूँ सोच नहीं पाती
हूँ मैं क्या समझ से बाहर है
मैंने तुम्हें समझा है पर खुद को नहीं
अभी तक कारण समझ न पाई |
आशा