20 नवंबर, 2015

सुख चैन



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पहले भटके दर दर
सुख चैन की तलाश में
थी अनगिनत बाधाएं
उन पलों की आस में
पर एक मार्ग खोज लिया
था कठिन  फिर भी
सुकून से भरते गए
जब आए उसकी शरण
विश्वास का संबल लिए  
प्रेम का एक बीज लगाया
जल से सिंचित उसे  किया
जब नन्हां सा अंकुर फूटा
फल पाने को बेचैन हुआ
यही अस्थिरता मन की  
मार्ग से भटकाने लगी
सुख  तिरोहित हो गया
बेचैनी का सामना हुआ
पर फल की आशा में
चंचल मन वही अटका 
जब तक फल ना मिला
उसका डेरा वहीं रहा
कुछ सुख का अनुभव हुआ
 स्थिरता आई मन में
बचैनी से किनारा किया  
उसकी तलाश पूरी हुई
दौनों पूरे तो  मिल न सके 
पर राहत का अनुभव हुआ |
आशा

18 नवंबर, 2015

कश्ती कागज़ की


 


आधी अधूरी जिन्दगी
कागज़ की कश्ती सी
बहती जाती डगमगाती
वार लहर का सह न पाती
हिचकोले खाती
असंतुलन से नजरें मिलाती
धीरे धीरे गलने लगती
है नश्वर वह जान जाती
पर जल से सम्बन्धबना पाती
समय ने भी सिखाना चाहा
साथ चलो बढ़ते जाओगे
पर बात समझ से थी परे
उस पर अमल न कर पाई
कागज  की कश्ती डूब गई
 वह तो  यह भी न कर पाई  
अपने आपमें उलझी रही
समय से सीख न ले पाई
अब बहुत देर हो चुकी है
किसी के सुझाव मानने को
अपनी त्रुटियाँ जानने को
विचारों को मूर्त रूप देने को
जीवन की शाम  उतर आई है
और इंतज़ार बाक़ी है
मुकाम तक पहुँचने को |
आशा
  

16 नवंबर, 2015

यादें भूल न पाई


तुम स्नेह भूले तो क्या 
एक दीप जलाया मैंने 
प्यार भारी सौगात का 
झाड़ा पोंछा कलुष मन का 
कोई भ्रम न पलने दिया 
मान का मनुहार का 
फिर किया स्वागत हृदय से
आने वाले पर्व का 
नेह से थाली सजाई 
हिलमिल सबने दूज मनाई 
पर एक कसक मन में रही 
तुम्हारी यादें भूल न पाई
हर वर्ष दिवाली आती है 
बीते कल में ले जाती है 
बचपन में जो आनंद था त्यौहार का 
जब मान  मनुहार हुआ करते थे
मां बीच बचाव करती थी
वे लम्हे मैं भूल न पाती 
मन उदास हो जाता है 
क्या यही रीत है  दुनिया की 
सोचती रह जाती हूँ |
आशा



14 नवंबर, 2015

खिली धूप

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खिली धूप
स्पर्श मद मंद वायु बेग का
ले चला मुझे
स्वप्निल आकाश में
वर्तमान हुआ धूमिल
जीने लगा
 यादों के साए में
यही है भेद
सत्य और कल्पना में
सत्य जो भी रहा हो
कल्पना तो महान है |
आशा

12 नवंबर, 2015

रिश्ते कितने किस सीमा तक


 

आये अकेले इस जग में
जाना कब है पता नहीं है
पर अपनाए गए रिश्तों को
बिना विचारे ढोते ही जाना है
ये रिश्ते बने कैसे
कहना सरल नहीं है
पर बंधन में बंधते ही
इनसे बचने की राह नहीं है  
 रिश्ते जनम जनम के होते
सात जन्मों तक निभाने  को 
कच्चे धागे से बंधे हैं
है बंधन अटूट  फिर भी  इनका
जिसे   बिना सोचे समझे
जीवन  पर्यंत निभाना है
बंद  आँखें कर चलते जाना है
रिश्ते कैसे कैसे 
कुछ जन्म से
 कुछ मान्य  या थोपे गए
पर रिश्ते तो रिश्ते हैं
उन्हें परवान चढ़ाना है    
कुछ रिश्ते अनचाहे 
अनजाने में बनते हैं
शायद यही दर्द  के रिश्ते हैं 
लव से कुछ बिना कहे
मन की भाषा समझते हैं
जब जन्में थे अकेले ही
 उनमें क्यूं बंध जाना है
हर रिश्ते की है  अपनी सीमा 
पर अपेक्षाएं भी कम नहीं
कितनी किसे प्राथमिकता दें
यह भी सुनिश्चित नहीं
प्राथमिकता का क्रम
यदि बिगड़ जाए
दरारें दिल में बढ़ती जाएं
कई सोच उभरने लगते हैं
हो रिश्तों की दूकान क्यूं
दिखावे की भरमार क्यूं
जब अकेले ही आये थे
अकेले ही जाना है |
आशा