25 मई, 2014

व्यथा पिता की


 


हारा तन के संताप से
मन के उत्पात से
जीवन व्यर्थ हुआ
 जग के प्रपंचों  से |
बचपन में अकेला था
कोई मित्र न मेरा था
केवल घर ही मेरा था
पर बीमारी ने घेरा था |
यौवन में पा संगिनी
घर में देखा स्वप्न
प्रजातंत्र लाने का
हर बात के लिए
 सबसे साझा करने का |
सब ने जाना केवल
अधिकार बोलने का
आज है ना कोई वजूद मेरा
ना ही कोई आवाज
उस शोर में दब कर रह गई है
आज मेरी पहिचान |
बेबस मूक दर्शक हूँ
अपनी व्यथा किससे कहूँ
पिस रहा हूँ
 चक्की के दो पाटों में |

24 मई, 2014

ए वादेसवा (हाइकू)


(१) 
 ए वादेसवा 
जाना उस देश में 
जहां हो प्रिया|
(२)
 नम  अधर 
ओसमय वदन 
लगते  मदिर |
(३)
खिचती  रेखा
उन  दौनों के बीच 
बढती दूरी |
(४)
ए मीत  मेरे 
है  यह रीत नहीं 
तुम न आए |
(५)
जलते पैर 
धूप है हरजाई
 जाने न दे |
(६)
नैन  रसीले 
नटखट कान्हा के 
भरमा गए |
(७)
परिवर्तन  
लोगों के विचारों में 
अमन लाए |
आशा 









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22 मई, 2014

रिश्ते का सत्य


जल में घुली चीनी की तरह
कभी एक रस ना हो पाए
साथ साथ न चल पाए
तब कैसे देदूं नाम कोई  
ऐसे अनाम रिश्ते को |
जल में मिठास आ जाती है
चीनी के चंद कणों से
होती है हकीकत दिखावा नहीं
पर स्थिति विपरीत यहाँ
रिश्ता बहुत सुदृढ़ दीखता
पर खोखला अंदर से |
दौनों में कितना अंतर है
पर जीवन का सत्य यही है
मतलब के सारे रिश्ते हैं
छलना का रूप लिए हैं |
क्षणभर के लिए बहकाते हैं
वास्तविक नजर आते हैं
तभी विचार आता है
क्या रिश्तों का सत्य यही है |
आशा

20 मई, 2014

ये चंद लकीरें


hand
बनी हर हाथ में
ये चंद लकीरें
रहती सदा उत्सुक
बहुत कुछ कहने को
पर सुनने वाला तो हो |
जीवन का पूरा चिट्ठा
लिखा विधाता ने इनमें
पर सही पढने वाला
कोई  तो हो |
जब कोइ हादसा हो
या कोइ समस्या हो
होती क्षमता इनमें
सतर्क करने की
जो हस्त रेखा पढ़ पाए
रेखाएं  मस्तिष्क की समझ पाए
जानकार ऐसा तो हो |
कुछ अध्यन करते
सत्य  बताते
पर  तकदीर की लकीरों पर
विश्वास  तो हो |
आशा

18 मई, 2014

माँ (हाईकू )

११.५.२०१४
मेरी जननी 
प्रिय जान से मुझे
जैसे अवनी |

प्रथम गुरू
हो सुबह मेरी माँ
तुझसे शुरू |

माँ का आँचल
भरा है ममता से
रिक्त न होता |
आशा

15 मई, 2014

दो तोते


दो तोते बैठे 
 वृक्ष के तने पर 
आपस में बतियाते 
वर्तमान पर चर्चा करते |
उदासी का चोला ओढ़े 
यादे अपनी ताजा करते 
पहले कितनी हरियाली थी 
हमजोलियों की टोलियाँ थीं |
बड़े पेड़ कटते गए 
मित्र तितरबितर हो गए 
आधुनिकता की बली चढ़ गए 
मानव ही बैरी हो गया 
सृष्टि के संतुलन का |
हरियाली का नाश किया 
सीमेंट लोहे  का जंगल उगाया 
यही कारण हो गया 
हम सब की बदहाली का  |
रैन बसेरा नष्ट हो गया 
आज है यह हाल
 कल न जाने क्या होगा 
अभी बैठे हैं यहाँ 
कल न जाने कहाँ होंगे |
आशा