10 जून, 2015

तारों की दुनिया में



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शाम का धुंधलका
रात्रि की प्रतीक्षा
मुझे ले चली
खुले मैदान में |
रात्रि में सितारे
झिलमिलाए टिमटिमाये
यहाँ से वहां जाएं
ले चले अपने साथ में |
विचारों ने उड़ान भरी
माँ ने एक बार बताया था
हर तारा किसी न किसी का
घर होता है  |
मैंने सोचा क्यूं न मैं
अपना घर खोजूं
उस जहां में
सितारों के सान्निध्य में |
जैसे ही कदम बढाए
दृश्य विहंगम  नजर आया
एक समूह   तारों का
दरिया सा नजर आया |
याद आई आकाश गंगा
किताब में कभी पढ़ा था
 समेटे है अनगिनत तारे
 अपने में |
ज़रा भी भ्रम नहीं हुआ देख कर
यही है शुक्र तारा प्यार का सितारा
किसी ने नाम दिया  भोर का तारा
चमक तीव्र इसकी पहचान हुई |
पर एक तारा नन्हां सा
चाँद के पास
इतना मन भाया सोचा
कल यही मेरा घर होगा |
आशा  

09 जून, 2015

किशोरावस्था




        है उम्र ही ऐसी
किसी पर प्यार आता है
रंग ढंग देख कर 

अनुकरण का
 विचार आता है
मिलने जुलने का
मन नहीं होता
किसी पर
क्रोध आता है
व्यर्थ ही मन
झुंझलाता है |
यदि मन की
बातों न पूरी हों
बगावत का
ख्याल आता है
खुल कर
विरोध हो
अपनी बात ही पूरी हो
क्रान्ति का
विचार आता है 

दिवा स्वप्न में खोया रहता 
कल्पना में जीता
यह उम्र का है तकाजा
किशोर को
बगावत सिखाता है |
आशा

08 जून, 2015

परकटा पक्षी

 
परकटा पक्षी अकेला 
सोच रहा मन ही मन में 
खुलने लगी  ग्रंथियां मन की
उसके सूने से जीवन की |
एक समय ऐसा था जब
 पंखों पर रश्क होता था
 वह विचरण करता व्योम में 
ऊँचाई आसमा की छूनें  |
साथियों के संग हो अनंग
मधुर गीत गाता रहता था 
आकर्षक सब को लगता
जब  रंगीन पंख फैलाता था |
मीठे फल खाता वृक्षों के
 दाना चुगता  यहाँ वहां
 सरोवर में  खोजता जल
प्रकृति के सान्निध्य में  |
एक बहेलिया घूम रहा था
 शिकार की तलाश  में 
वह जाल में ऐसा  फंसा
 निकल न सका बेचा गया|
थे बहुत निर्दयी लोग 
पहले पंख   काट दिए 
जिन पर रश्क उसे रहता था
फिर बंद किया एक पिंजरे में |
छूट गए संगी साथी 
प्रकृति का सान्निध्य गया
गुहार लगाई किसी ने न सुनी
बंदी हो कर रह गया |
खुद का कुछ भी न रहा
अपनी भाषा  भूलने लगा 
अब  जो भी सिखाया जाता है 
वही वह दोहराता है |
पहले पलायन पिंजरे से 
करने का मन होता था 
बिछड़ों से पुनः मिलन का 
  पर अब नहीं |
ना शक्ति रही बाजुओं में
ना ही पहले सी ललक 
रह गया है  भय मन में 
यदि बाहर निकला 
 दुश्मन का निवाला होगा 
बिना बात मारा जाएगा |
वह समझ गया है 
है यही नियति उसकी 
है वह प्रदर्शन की वस्तु
पिंजरा उसका वास  |
ना तो  सुन्दरता पहले सी
ना ही इच्छा प्रकृति में बापसी की 
नियति के हाथों की 
कठपुतली हो कर रह गया है |
आशा










07 जून, 2015

सीमा विवाद


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सीमा पर आये दिन
हादसे होते रहते है
माँ की ममता लिपटी ध्वज में
चिर निद्रा में सो जाती  |
एक तमगा मरणोपरांत
सैनिक को मिलता है
परिवार को भेट किये जाते है
चन्द सिक्के उसके बाद |
आखिर कब तक सरहद पर
यह खूनी होली जलती रहेगी
अमन चैन छिनता रहेगा
माँ की गोद सूनी होगी |
हर वर्ष शहादतें सैनिकों की
सहन करना अब मुश्किल
सीमा विवाद हल न होता
न कल हुआ न आज |
अमन की बातें रहतीं
 केवल कागजों पर
विवाद के जबाब में
एक कड़ा विरोध पत्र |
वह भी डाल दिया जाता
किसी ठन्डे बस्ते में
भुला दिया जाता
अगले वार के होने तक |
जानें कितनी जानें जातीं
पर नेता अपनी रोटी सकते
व्यर्थ समय बर्बाद करते
केवल बहस बाजी में |
आशा

05 जून, 2015

पर्यावरण

आज पर्यावरण दिवस है कुछ विचार बांटना  चाहूंगी :-
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सही समय पर सही कार्य
शक्ति देता प्रकृति को 
जल संचय वृक्षारोपण
 हराभरा रखता धरती को
मिट्टी पानी जल वायु 
मुख्य अंग पर्यावरण के 
समस्त चराचर टिका हुआ है 
इनके संतुलित रूप पर
कटाव किनारों का होता 
यदि वृक्ष नदी किनारे न  होते 
मिट्टी का क्षरण होता 
नदियाँ उथली होती जातीं
 जल संचय क्षमता कम होती 
हम और यह कायनात 
जीते  है पर्यावरण में
यदि संतुलन इसका बिगड़ता 
कठिनाइयां निर्मित होती 
प्रदूषण को जन्म देतीं
अल्प आयु का निमित्त होतीं 
किरणे सूरज की 
रौशनी चन्दा मामा की
तारोंकी झिलमिलाहट 
सभी प्रभावित होते पर
 हम अनजान बने रहते 
प्रदूषित वातावरण में 
जीने की आदत सी हो गई है
 मालूम नहीं पड़ता
फिर भी प्रभाव 
जब तब दिखाई दे ही जाते 
पर्यावरण से छेड़छाड़ 
हितकारी नहीं होती
मानव ने निज स्वार्थ के लिए 
अपने अनुकूल इसे बनाना चाहा 
पर संतुलन पर डाका डाला 
यही गलती पड़ेगी भारी 
आने वाले कल में |
आशा











04 जून, 2015

एक गणिका (सत्य कथा )

 
एक शाम घर से निकली 
मन था बाहर घूमने का 
सज सवार बाहर आई 
सौन्दर्य में कमीं न थी |
पार्क भी दूर न था 
वहीं विचरण अच्छा लगता था 
उसी राह चल पड़ी
अनहोनी की कल्पना न थी |
एकाएक कार रुकी एक
दो हाथ  निकले बाहर
चील ने झपट्टा मारा 
और वह कार के अन्दर थी |
फिर ऐसा नंगा नाच
 मानवता का ह्रास
शायद ही किसी ने देखा होगा 
अस्मत लुटी दामन तारतार हो गया|
अति तब हो गई जब
लुटी पिटी बेहाल वह
 सड़क पर फेंकी  गई
रोई चिल्लाई
मदद की गुहार लगाई |
पर संवेदना शून्य लोग 
नजर अंदाज कर उसे आगे बढ़ गए 
वह  सिसकती रह गई 
मदद की गुहार व्यर्थ गई |
लहूलुहान बदहाल  वह 
जैसे तैसे घर पहुंची 
यहाँ भी दरवाजे बंद हुए 
समाज के भय से उसके लिए |
आंसू तक बहना भूल गए 
फटे टार टार हुए कपड़ों में 
समझ न पाई कहाँ जाए 
किस दर को अपना ठौर बनाए |
संज्ञा शून्य  सी हुई 
अनजानी राह पर चल पड़ी
अब केवल अन्धकार था 
कोई भी अपना नहीं साथ था |
जब भी  नज़रे उस पर पड़तीं
बड़ी हिकारत से देखतीं 
खून का घूँट पी कर रह जाती 
आखिर क्या था कसूर उसका?
कहने को वह दुर्गा थी 
सक्षम थी पर अब अक्षम 
किसी ने न जाना 
उसकी समस्या क्या थी |
सबने नज़रों से गिरा दिया
जहां कोई भी जाना  नहीं चाहता
उस कोठे तक  उसे पहुंचा दिया 
वह रह गई एक गणिका होकर |
आशा