10 अप्रैल, 2019

धर्म



















मालूम न था 
किस धर्म में पैदा हुए 
जिसने जो भी बताया मान लिया
प्रभु ने ऐसा रूप दिया
माली ने गुलदस्ता बनाया
 रंग बिरंगे पुष्पों से सजाया 
मानो विभिन्न परिधान में लिपटे
लोग खड़े हों एक समूह में
कोई खुद को हिन्दू कहता
कोई अपने को मुस्लिम बताता
कोई रूप सिक्ख का धरता
कोई बौद्ध धर्म अपनाता 
कोई होता  जैन
अनगिनत देवी देवता पूजे जाते
कभी तो हद हो जाती
दीमक का घर ही पुजने लगता
 धर्म के नाम पर
शायद है एक परमात्मा के रूप अनेक
जिसकी जैसी मानसिकता
उसे वही दिखाई देता
 भगवान् के रूप में
आस्था उसमें ही बढ़ती जाती
जिस ओर भीड़ होने लगती
कभी दिनचर्या में  बदलाव के लिए
व्रत  उपवास किये जाते
 कभी  टोने टोटके करवाते 
बाबाओं के चक्कर लगाए जाते
पर सच्चे अर्थों में
धर्म का ज्ञान न हो पाता
 समझ से परे है धर्म की परिभाषा
मानती  हूँ धर्म है व्यक्तिगत
हम सब का धर्म है एक सत्ता के हाथ में
जो हर समय निगाह रखती है
हर कार्य सही है या गलत
पहले से भास् कराती है
हिन्दुस्तान में रहते है
बासुधैव कुटुम्बकम की भावना रखते हैं 
बोली चाहे जो भी हो
 हमारा धर्म है हिन्दुस्तानी |
आशा

07 अप्रैल, 2019

यदि प्यार चाहिए



                                                                प्यार एकतरफा न हो
यदि प्यार चाहिए
प्यार दो बदले में भरपूर
 है यही दस्तूर |
नहीं दुलार किसी
दया का मोहताज
दिल से दिल की बातें
कहना चाहिए |
सच्चे अर्थों में अपनापन
मन में होना चाहिए
हो भावना प्रवल
दिखावा न होना चाहिए |
दुराव छिपाव का
नहीं यह खेल
आत्मा से आत्मा का
जुड़ाव होना चाहिए |
                                                                                 आशा

04 अप्रैल, 2019

शाला का प्रथम दिन


नया बस्ता नई यूनीफार्म
उत्साह अधिक शाला जाने का
 अपनी सहेलियों से मिलाने का
पर वह अकेली  है उदास
उसकी  नई ड्रेस नहीं आई अभी तक  
बहुत बेमन से पुरानी ड्रेस पहन कर
अलग अलग जाती दीखती
मन की बात किससे कहे
अभी तक पैसों का जुगाड़ नहीं हुआ है
नया सामान लाने को
मां ने कहा है
 अभी इसी से काम चलाओ
अगले मांह कुछ तो जुगाड़ होगा
है वह बहुत असमंजस में
कैसे सामना करेगी
 अपनी अध्यापिका का 
आए दिन सजा मिलेगी
बिना यूनीफार्म के आने की
वह कैसे कहेगी
 अभी पैसे नहीं हैं
 पर मन में ललक
 शाला जाने की कम नहीं
रोज अपनी अवमानना कैसे सहेगी
शायद यही है प्रारब्ध उसका
उसे  स्वीकार करना होगा
                                                               पर मनोबल कम न होगा 
                                             आशा

03 अप्रैल, 2019

रूप तेरा







रूप तेरा पूनम के चाँद सा
चेहरा सजा साज  सिंगार से
माथे पर कुमकुम का टीका
खुशबू से अंग अंग महका |
केश विन्यास सुन्दर तेरा  
बड़े सलीके से सजाया गया है
श्वेत पुष्पों की माला से|
मृगनयनी चंचल चपल  
 हैं नैन बड़े  विशाल  तेरे
पैनी उनकी धार से  जब करते कटाक्ष
हृदय विदीर्ण हो जाता |
चाहे जितने करू उपचार
 दर्द कम न होता
जब चलते नैनों के बाण  तीखे
घाव दिल के नहीं भरते |
नैनों में कजरे की गहरी  रेखा   
आकार बढ़ा देतीं इतना
लगता पूरा कैद कर लेंगी मुझे
क्यूँ न मैं समा जाऊं उनमें |
हाथों की उंगलियों से  
 मुंह छिपाने की कोशिश
 मैं एकटक देखता रहूँ
पलकें भी न झपकाऊँ |
तेरी यह अद्भुद छवि और अधिक
 आकर्षित  करती मुझे
मन में भय रहता सदा ही  
किसी की नजर न लगे तुझे |
                                             आशा

शायद



                                   है शब्द  बहुत सामान्य सा
पर करतब इसके बहुत बड़े
जब भी उपयोग में लाया जाता
कुछ नया रंग दिखलाता
किन्तु परन्तु की उलझने
सदा  अपने साथ लाता
जब भी शायद का उपयोग होता
वह मन में बिछे उलझनों के जाल में
ऐसा फंसता जैसे
 मीन बिन जल के तड़पती
हरबार असमंजस होता हावी
क्या करे ? कैसे करे?
यह यदि किया होता
दुविधा से सरलता से  निकल पाता
उलझन से छुटकारा पाता
इस शब्द की आराधना
पड़ती बहुत मंहगी
उससे बच  कर जो रहता
दुखों से दूरी  बनाकर चलता
वही सफल हो पाता
किन्तु , परन्तु ,क्या, क्यों ,कैसे
के जाल से मन को मुक्त कर पाता
                                सहज भाव से जीवन  जी पाता 
                                             |आशा

02 अप्रैल, 2019

फलसफा प्रजातंत्र का

बंद ठण्डे कमरों में बैठी सरकार
नीति निर्धारित करती 
पालनार्थ आदेश पारित करती 
पर अर्थ का अनर्थ ही होता 
मंहगाई सर चढ़ बोलती 
नीति जनता तक जब पहुँचती 
अधिभार लिए होती 
हर बार भाव बढ़ जाते 
या वस्तु अनुपलब्ध होती 
पर यह जद्दोजहद केवल 
आम आदमी तक ही सीमित होती 
नीति निर्धारकों को 
छू तक नहीं पाती 
धनी और धनी हो जाते 
निर्धन ठगे से रह जाते 
बीच वाले मज़े लेते ! 
न तो दुःख ही बाँटते 
न दर्द की दवा ही देते 
ये नीति नियम किसलिए और 
किसके लिए बनते हैं 
आज तक समझ न आया ! 
प्रजातंत्र का फलसफा 
कोई समझ न पाया ! 
शायद इसीलिये किसीने कहा 
पहले वाले दिन बहुत अच्छे थे 
वर्तमान मन को न भाया !