लागलपेट नहीं कोई
ना दुराव छिपाव कहीं
झूट प्रपंच से रहता दूर
मन महकता चन्दन सा |
हर बात सत्य नहीं होती
आधुनिकता के इस युग में
जैसा देखता वही सोचता
उपयोग न करता बुद्धि का |
जो जैसा दिखता है , नहीं है वैसा
बाहर से है कुछ और
अन्दर से है रंग और
रंग भीतर का सर चढ़ बोलता |
मुंह पर मुखोटा लगा कर
दुनिया से तो बचा रहता
सत्य उजागर होते ही वह
मुंह छिपाए फिरता |
कटु सत्य सहन नहीं होता
मन विद्रोही यदि होता
बगावत का झंडा फहराता
समाज से अलगाव होता |
आशा