14 सितंबर, 2020

वृक्ष

 
 
 
 

वर्षों से एक ही स्थान पर
 बनकर समय के परिचायक
 बिना कोई प्रतिक्रया दिए 
चुप चुप से मौन खड़े हो
| गरमी में तेज धुप सही 
पर विरोध नहीं दर्शाया 
वर्षा हुई जब तेज
 तन भीगा मन भी भीगा 
तुमने कोई प्रभाव नहीं दिखाया | 
जैसे थे वैसे ही खड़े रहे 
 एक सजग प्रहरी की तरह 
जाने कितने पक्षियों का आसरा बने 
 एक पालक की तरह |
 प्रातः काल जब कलरव सुनाई देता
 कानों में रस घोलता 
एक अनोखा एहसास मन में होता 
चेहरा प्रसन्न खिला खिला रहता 
 सच में तुमने एक महान कार्य किया है
 हमने तो तुमसे शिक्षा ली है
 कैसी भी परिस्थिती हो
 मोर्चे पर खड़े रहेंगे
 पीठ दे कर भागेगे नहीं |

13 सितंबर, 2020

है क्या सोच तुम्हारा


 

कभी   तुम  ने सोचा नहीं

बताया नहीं है क्या तुम्हारे  मन में

क्या चाहते हो मुझ से |

अनगिनत  आकांक्षाएं  अपेक्षाएं

मुझे भी तुम से होगी

कोई तो अपेक्षा तुमसे

कभी जानना चाहा नहीं |

हो कितने निजी स्वार्थ में लिप्त

कभी सोचतो लेते मैंने तो

प्यार किया था तुमसे

 शायद तुम्हें अब याद न हो

जब होती विरह वेदना

तब पता चलता तुम्हे |

कभी तुम  ने सोचा नहीं

बताया नहीं है क्या तुम्हारे  मन में

क्या चाहते हो मुझ से |

अनगिनत  आकांक्षाएं  अपेक्षाएं

मुझे भी तुम से होगी

कोई तो अपेक्षा तुमसे

कभी जानना चाहा नहीं |

हो कितने निजी स्वार्थ में लिप्त

कभी सोचतो लेते मैंने तो

प्यार किया था तुमसे

 शायद तुम्हें अब याद न हो

जब होती विरह वेदना

तब पता चलता तुम्हे |

11 सितंबर, 2020

क्या सोच रहे हो ?

 

 


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क्यूँ अकेले खड़े निहार रहे

मौन व्रत धारण किये

मूक मुख मंडल पर  

मुखर होने को बेकल

शब्दों को पहरा मिला |

दिल पहले तो बेचैन हुआ

फिर तुम्हें समझना चाहा

ऐसी उथल पुथल है

आखिर मन में क्यूँ  ?

हो इतने बेवस लाचार क्यूँ ?

शायद  यही सोच रहता है

हर पल  तुम्हारे मन में |

पर क्या कभी सोचा है

इस दुनिया में हैं

अनगिनत ऐसे  इंसान

 बुरी स्तिथी  है जिनकी

पर जिन्दगी से हार नहीं मानी है

अभी भी जीने की तमन्ना बाक़ी है | 

उनसे प्रेरणा मिलती है

पल भर के क्षण भंगुर जीवन में

प्रभु के सिवार किससे  आशा करें

खुद जिए और जीने दें  औरों को |

आशा  

 

09 सितंबर, 2020

बंधन ही बंधन

बंधन ही बंधन
आसपास उनका घेरा
कभी समाज का बंधन
कभी खुद पर ही
 स्वयं का नियंत्रण |
जिस ओर दृष्टि दौड़ाई
बेचैन दिल हुआ
क्या किया था मैंने ऐसा
मुझे ही सोचने को
बाध्य होना पडा |
क्या होना चाहिए था
और क्या हो गया ?
बंधनों की हर नई खेप
अब तो कर देती है
विचलित मुझे |
कौनसा मापदंड अपनाऊँ
किससे दिल का हाल बताऊँ
शायद कोई तो मुझे
समझ पाया है अब तक
या है मेरे मन का बहम |
अब बहम से दूरी चाह रही हूँ
मन के सुकून के
 बहुत नजदीक आ गई हूँ
अब तोड़ना चाहती हूँ
नहीं होते अब बंधन सहन मुझे |
जी चाहता है काटूं हर बंधन
खुले आसमान में उड़ती फिरूं
सभी बंधनों से हो कर मुक्त
खुद जियूं और जीने दूं सभी को |
मुझे भी एहसास हो
कि स्वतंत्रता है क्या
जीने का आनंद है क्या |
आशा