30 सितंबर, 2020

स्वर्णिम दिन बचपन के


 

वे दिन तो थे  स्वर्णिम 

जब था बचपन का राज्य

हमारे परिवार पर

ना कोई बड़ा ना ही  छोटा |

बड़ी जीजी का कहना मानना था जरूरी

मैं और मेरी छोटी बहन उसका कहा  मानते

साथ साथ पढ़ते  एक ही साथ खेलते थे

एक दूसरे से बेहद स्नेह रखते थे |

पर न जाने कैसे दूसरों का

 आगमन हुआ हमारे घर में

उसने पैर पसारे घर में

तब लगा कोई बाँट रहा है हमारे प्यार को |

हद तो जब हुई जब उसकी भाभी के कदम पड़े  

मैं बेचारा यूँ ही खण्डों  में बटा

 हम इस गाँव वे रहे वहीं जहां पहले रहते थे

है  जिम्मेदारी मेरी दौनों घरों की किसी और की नहीं |

किसे प्राथमिकता दूं मेरा मस्तिष्क ही  काम नहीं करता

एक का जरासा भी कुछ किया

आ खड़ी होती मेरे सामने

कटु भाषा की तलवार लिए |

अपनी जिम्मेदारी कभी  समझी नहीं

यदि मैंने कुछ किया किसी के लिए

 पत्नी जी का मुंह चढ़ जाता दो चार दिन के लिए

वह एकाधिकार मुझ पर अपना चाहती |

जैसे मैं हाड़ मॉस का पुतला नहीं हूँ

समझती मुझे  कोई निर्जीव  सामग्री

या जर खरीदा गुलाम जो

उसके पापा ने भेट किया है |

आशा

29 सितंबर, 2020

है क्या तुम्हारे मन में


 कितनी बार तुम्हें देखा है मैंने

भावों के पंख लगा कर उड़ते  

उन्मुक्त हो  आसमान में विचरते

रहता जहां एक छत्र  राज्य तुम्हारा |

वर्चस्व सहन नहीं  कर पातीं किसी और का

अपने एकाधिकार क्षेत्र में

 किसी की  धुसपेठ सहन नहीं कर पातीं

बैचेनी तुम्हारे मस्तिष्क में छा जाती |

यूँ तो  शब्दों की कमी नहीं होती

 तुम्हारे मन मस्तिष्क में

दूर की कौड़ी खोज लाती हो

शब्दों को पिरोने में |

भाव बड़ी सरलता से

 शब्दों की माला में सजते

तुम सुन्दर सी माला लिए  हाथों में

अपने प्रियतम को खोजती हो |

तुम्हारी खोज जब ही पूरी होगी

जब माला के लायक मनमीत मिलेगा

तुम्हारी मनोकामना पूरी होगी

 फूल तुम्हारे दामन में खिलेगा |

नित नया सृजन करोगी

साहित्य में योगदान दोगी

दिन दूनी  रात चौगुनी प्रगति करोगी

अपनी कामना को और परवाज दोगी |

आशा

28 सितंबर, 2020

मैं जान नहीं पाया


 

मन की वीणा बाज रही है

 धर की दीवारें गूँज रहीं

मीठे मधुर संगीत से मन खुशी से डोले

है ऐसा क्या विशेष तुम्हारी सीरत में |

कुछ तो है तुममें ख़ास

मुझे तुम्हारी ओर खीच रहा है

है आकर्षण या कुछ और

 मेरी समझ से है  परे |

मैं जान नहीं पाया तुम्हारी मर्जी

कितनी बार तुमसे आग्रह किया

बार बार तुमसे जानना चाहा

पर सारे प्रयत्न विफल रहे |

है तुम्हारे मन में क्या

क्या कभी मुखारबिंद से बोलोगी

या यूँ ही मौन  रहोगी

पर कब तक कोई समय  सीमा तो होगी |

मुझसे यह  दूरी अब सहन नहीं होती

जो चाहोगी वही करूंगा

पर फिर से मुझे इस तरह सताना

तुम्हें  शोभा नहीं देता |

कोई भी कारण हो  मुझसे कहोगी

मनमानी नहीं करोगी वीणा सी बजोगी

मैं तुम्हारी हर बात मानता आया हूँ

तुम भी वादा खिलाफी नहीं करोगी |

आशा

27 सितंबर, 2020

सूनी सूनी महफिल है तुम्हारे बिना

बहार छाई है महफिल में

रात भर महफिल सजी है

तुम्हारी कमी खल रही है

बीते पल बरसों से लग रहे हैं

यह  दूरी  असहनीय लग रही है

पर क्या करूँ मेरे बस में कुछ नहीं है

जो तुमने चाहा वही तो होता आया है

मेरी सलाह तक नहीं चाहिए तुम्हें

फिर मैं ही क्यूँ दीवाना हुआ हूँ ?

तुम्हारे पीछे भाग रहा हूँ

है ऐसा क्या तुममें

आज तक जान नहीं पाया हूँ |

कभी सोच कर देखना

 क्या विशेष है तुम में

मुझे भी तो पता चले

जो तुममें है मुझमें नहीं |

क्या मेरी गजल में जान नहीं

या तुम्हें मेरी लिखाई पसंद नहीं

क्यों चाहती हो मेरा साथ नहीं

या मेरे मन में तुम्हारे लिए  लगाव नहीं |

कभी मन की बात कह देतीं

तुमने  मुझे बताया होता

तब मन को ठेस नहीं लगती

रात भर शमा मेरे दिल सी  जलती रहती 

सूनी सूनी महफिल है तुम्हारे बिना |

 

  

         आशा