06 अक्तूबर, 2020

कोयल की मीठी सी बोली

वाणी का माधुर्य

कानों में मधुर  रस घोले

है वही भाग्यशाली जो

उसका अनुभव  करे |

जितनी मिठास बोली में होगी

कभी अनुभव तो की होगी

उससे बंचित रहे यदि

बड़ी अनहोनी झेली  होगी |

मीठी मिश्री सी बोली

भाग्य की नियामत है

प्रभु की दी सौगात है

सब के नसीब में कहाँ |

आशा 

 

03 अक्तूबर, 2020

एक पथिक

 


हे क्लांत पथिक

क्यूँ छाँव देख

 विश्राम नहीं करते

है ऐसा क्या वहां

 क्यूँ  पहुँचाने की

 जल्दी है तुम्हें |

यह तक भूले

हो कितने परेशान

इस विपरीत मौसम में |

यदि बीमार पड़े

 तो कौन साथ देगा

तब कोई सहायता

 नहीं कर पाएगा |

तब पछतावा होगा

काश कहना

मान किया होता

यह दिन तो न

 देखना   पड़ता |

अभी तक खूब आगे

निकल गए  होते

गंतव्य के बहुत

 नजदीक  होते |

आशा     




01 अक्तूबर, 2020

सक्षम नारी आज की


 

 

                                     है परिष्कृत  मस्तिष्क तुम्हारा

किसी से कम नहीं हो

हर क्षेत्र में आगे बढी हो

है देश को गर्व तुम पर |

 किसा भी प्रकार का  कार्य हो

 तुमने  दक्षता से पूरा किया है

पूरी क्षमता से आगे बढी हो

पीछे मुड़ कर नहीं देखा है |

ना शब्द  तुम्हारे शब्द्कोश में नहीं है

हो लक्ष्मी बाई जैसी निडर बहादुर

हो नारी शक्ति की  प्रतीक

 हमें गर्व है तुम पर तुम्हारे जन्म पर

शायद ही कोई ऐसा कार्य हो

 जो तुमसे छूटा  हो

जब तक सफलता न मिल पाए

तुमने हार नहीं मानी है |

है यही विशेषता तुम्हारी

सभी का मन मोह रही है

सभी को गर्व है तुम पर

देश की नारी शक्ति पर |


30 सितंबर, 2020

स्वर्णिम दिन बचपन के


 

वे दिन तो थे  स्वर्णिम 

जब था बचपन का राज्य

हमारे परिवार पर

ना कोई बड़ा ना ही  छोटा |

बड़ी जीजी का कहना मानना था जरूरी

मैं और मेरी छोटी बहन उसका कहा  मानते

साथ साथ पढ़ते  एक ही साथ खेलते थे

एक दूसरे से बेहद स्नेह रखते थे |

पर न जाने कैसे दूसरों का

 आगमन हुआ हमारे घर में

उसने पैर पसारे घर में

तब लगा कोई बाँट रहा है हमारे प्यार को |

हद तो जब हुई जब उसकी भाभी के कदम पड़े  

मैं बेचारा यूँ ही खण्डों  में बटा

 हम इस गाँव वे रहे वहीं जहां पहले रहते थे

है  जिम्मेदारी मेरी दौनों घरों की किसी और की नहीं |

किसे प्राथमिकता दूं मेरा मस्तिष्क ही  काम नहीं करता

एक का जरासा भी कुछ किया

आ खड़ी होती मेरे सामने

कटु भाषा की तलवार लिए |

अपनी जिम्मेदारी कभी  समझी नहीं

यदि मैंने कुछ किया किसी के लिए

 पत्नी जी का मुंह चढ़ जाता दो चार दिन के लिए

वह एकाधिकार मुझ पर अपना चाहती |

जैसे मैं हाड़ मॉस का पुतला नहीं हूँ

समझती मुझे  कोई निर्जीव  सामग्री

या जर खरीदा गुलाम जो

उसके पापा ने भेट किया है |

आशा