25 नवंबर, 2020

कोरोना



                                         कोरोना आया बताए बिना  

पंख फैलाकर उड़ा बिना पंख

मटियामेट कर गया जीवन को

सामान्य जन जीवन अस्तव्यस्त हुआ |

फिर लौट कर मुंह चिढाया

न कहा अलविदा फिर से हाबी हुआ

शायद जाने वाला मार्ग भूला |

महामारी जैसे शब्द से

अब तो नफरत सी  हो गई है

पहले तो कभी सुना नहीं था

हाँ किताब में जरूर  पढ़ा था |

है इसका इतना विकराल रूप

स्वप्न में भी कल्पना न थी

 ऐसे दहशत भरे दिनों की

 जाने कितने मरे सही आंकड़ा नहीं मालूम

 शेष  भोग रहे त्रासदी इस महामारी की |

प्रभू   परीक्षा ले रहा  धरती के  निवासियों की

कितनी प्रगति की है चिकित्सा के क्षेत्र में

 कोई निवारण का स्त्रोत खोजा नहीं है

केवल समाचार  ही सुने  वेक्सीन आने के |

आशा

 

 

 

 

 

23 नवंबर, 2020

समाज

 


एक से समाज नहीं बनाता

होता आवश्यक एक समूह

समान आचार  विचारों वाला

सामंजस्य आपस में हो

तभी स्वप्न समाज का

हो सकता है सफल |

यूँ तो एक  समूह भीड़ का भी होता

पर सोच होता सब का  अलग

कोई कुछ सोचता दूसरा कुछ और

 सभी राग अपना  अलापते तालमेल से दूर |

समाज के कुछ नियम होते

जिन्हें पालन करना होता अनिवार्य

तभी स्वस्थ्य समाज का होता निर्माण

मनुष्य है उसका अभिन्न अंग  |

आशा


 

22 नवंबर, 2020

अंतिम समय की त्रासदी



                                                  जिन्दगी जी ली है भरपूर अब तक

 कोई अरमा शेष नहीं

कोई ऐसा मार्ग खोजना है अब तो

जिसमें पहुँच कर ऐसी रमू

 जिन्दगी के शेष दिन भी

जी भर कर  भर पूर जियूं |

किसी की सेवा नहीं चाहती

किसी के एहसान तले दब कर

 जीना नहीं   मंजूर मुझे

अपने मन की मालिक रहूँ

कोई  परिवर्तन नहीं स्वीकार मुझे |

प्रभु ने भी अस्वीकार की मेरी अर्जी

अभी तक बुलावा नहीं आया वहां से

इतने लोगों को स्थान  मिला उस जहां में

मेरे पहुँचते ही दिखा बोर्ड “जगह नहीं है” का |

बहुत बेमन से निराश हो कर  लौटी वहां से

तब से अभी तक वह बोर्ड हटा नहीं है

जीवन की गति धीमी भी हुई है

जीना दूभर  हुआ अब तो |

 

आशा

 

 

19 नवंबर, 2020

स्वप्नों में जीना है सही नहीं

 

 

 


                                                          वह दिन बहुत सुन्दर दिखता है

जहां बिखरी हों रंगीनियाँ अनेक

पर होता कोसों दूर वास्तविकता से

मन को यही बात सालती है |

मनुष्य क्यों स्वप्नों में जीता है

वास्तविकता से परहेज किस लिए

क्या कठोर धरातल रास नहीं आता

यही सोच सच्चाई से दूरी बढाता |

जब भी जिन्दादिली से  जीने की इच्छा  होती 

कुठाराघात हो जाता  अरमानों पर

है यह कैसी विडम्बना  किसे दोष दिया जाए

मन को संयत  रखना है कठिन |

 सीमा का उल्लंघन हो यह भी तो है अनुचित

कितनी वर्जनाएं सहना पड़ती हैं

घर की समाज की और स्वयं के मन की

तब  भी तो सही आकलन नहीं हो पाता|

कहावत है आसमान  से गिरे खजूर पर अटके

केवल स्वप्नों में जीना है धोखा देना खुद को

क्या नहीं है  यह सही तरीका सच्चाई से मुंह मोड़ने का

वही हुआ सफल जिसने ठोस धरती पर पैर रखे |

आशा