तुम जाना चाहती हो चली जाना ,
पर मेरी कृतियों को ,
साथ ले जाना .
जो लिखी तो मैंनें हैं ,
पर उनकी आत्मा तुम्ही हो ,
मेंने तो कुछ शब्द चुने हैं ,
पर प्रेरणा स्त्रोत तुम्ही हो ,
मैं तो मात्र प्यार में डूबा था ,
तुम में खोया रहता था ,
मैं अभी तक समझ नहीं पाया ,
तुम जाने क्या समझ बैठीं ,
अपने आत्मीय रिश्तों को ,
तुम कैसे तोड़ पाओगी ,
इन आंसुओं के उफान पर,
कैसे काबू कर पाओगी ,
जाना चाहती हो जाओ ,
पर कारण तो बताती जाओ ,
मैं तुम्हें कहाँ खोजूंगा ,
चाहे जहां कहाँ भटकूंगा ,
अपने खाली पन के बोझ तले ,
इतना अधिक दब जाउंगा ,
न ही कोई कविता बनेगी ,
ना ही उस पर बहस होगी ,
कभी तो मुझे याद करना ,
मेरी मूक मोहब्बत पर ,
थोड़ा तो विश्वास करना ,
ज़रा सा कभी विचार करना ,
मेरी थाथी को ,
बहुत सम्हाल कर ले जाना ,
असमय की वर्षा में कहीं ,
सब समाप्त न हो जाए ,
या कहीं न बह जाए ,
तुमतो मेरी कविता हो ,
तुमसे ही है जीवन मेरा ,
मैं केवल तुम्हारा हूं ,
सदा तुम्हारा ही रहूँगा ,
जब चाहो चली आना ,
मैं तुम्हारा इन्तजार करूंगा |
आशा
05 अगस्त, 2010
03 अगस्त, 2010
अब तक जो कुछ भी लिखा था
अब तक जो कुछ भी लिखा था ,
था केवल आत्म संतुष्टि के लिए ,
पर अब इन कागजों के हाशियों पर ,
कई हस्ताक्षर करवाना चाहती हूं ,
आखिर ऐसा क्या लिखा है ,
जो इतने सारे पाठक हैं ,
पर सभी प्रशंसक ही नहीं हैं ,
कई आलोचक सामने हैं ,
जिनकी टिप्पणियों से ,
विचारों को बल मिलता है ,
कई विचार परिमार्जित होते हैं ,
कई परिष्कृत होते हैं ,
जब वे पल्लवित होते हैं ,
उनमें और निखार आता है ,
मैं चाहती हूं कुछ अनुभव बांटूं ,
कुछ मैं कहूँ कुछ औरों की सुनूं ,
उन पर और मनन करूं ,
अपने लेखन की त्रुटियों को,
मैं दूर करना चाहती हूं ,
कभी यह भी विचार आता है ,
यदि मैं कुछ कर न सकी ,
यह जीवन व्यर्थ न चला जाए |
आशा
था केवल आत्म संतुष्टि के लिए ,
पर अब इन कागजों के हाशियों पर ,
कई हस्ताक्षर करवाना चाहती हूं ,
आखिर ऐसा क्या लिखा है ,
जो इतने सारे पाठक हैं ,
पर सभी प्रशंसक ही नहीं हैं ,
कई आलोचक सामने हैं ,
जिनकी टिप्पणियों से ,
विचारों को बल मिलता है ,
कई विचार परिमार्जित होते हैं ,
कई परिष्कृत होते हैं ,
जब वे पल्लवित होते हैं ,
उनमें और निखार आता है ,
मैं चाहती हूं कुछ अनुभव बांटूं ,
कुछ मैं कहूँ कुछ औरों की सुनूं ,
उन पर और मनन करूं ,
अपने लेखन की त्रुटियों को,
मैं दूर करना चाहती हूं ,
कभी यह भी विचार आता है ,
यदि मैं कुछ कर न सकी ,
यह जीवन व्यर्थ न चला जाए |
आशा
01 अगस्त, 2010
इतनी दूर चली गई हो
इतनी दूर चली गई हो
कैसे अपने पास बुलाऊं
आवाज तुम्हें दी जब भी
तुम तक पहुंच नहीं पाई
पास तुम्हारे आना चाहता
पर रास्ता नजर नहीं आता
है एकाकी जीवन मेरा
सपनों में खोया रहता
यादों में डूबा रहता
आती हें याद वे मीठी बातें
कभी तकरार कभी झूठे वादे
मन अशांत हो जाता है
बीते कल में खो जाता है
सपनों में भी साथ तुम्हारा
कुछ भी भूलने नहीं देता
बस तुम्ही में खोया रहता
समझाऊं कैसे मन को
नियति का लेखा है यही
तुमसे दूर होना ही था
जिन पर अधिकार चाहता था
वे भी अब अच्छे नहीं लगते
चमक दमक इस दुनिया की
नहीं रिझाती अब मुझको
विरक्ति भी आती हैमन में
पर जो मेरा अपना था
उसे कैसे भूल जाऊं
स्मृति पटल पर है जो अंकित
कभी मिट नहीं सकता
जगह उसकी कोई ले नहीं सकता
मेरा खालीपन भर नहीं सकता
मेरी जिंदगी का अब
यादें ही हैं सहारा
हैं मेरे जीने का बहाना
आने वाली पीढ़ी
जब भी मेरी कहानी सुनेगी
मुझ जैसों को याद करेगी
अपनी भावनाओं को
एक नया रूप देगी |
आशा
31 जुलाई, 2010
फिर मृत्यु से भय कैसा
होती अजर अमर आत्मा
है स्वतंत्र विचरण उसका
नष्ट कभी नहीं होती
शरीर बनता घर उसका
पर शरीर होता नश्वर
जन्म है प्रारम्भ
तो मृत्यु है अंत उसका
अंत तो आना ही है
फिर मृत्यु से भय कैसा
सांसारिकता में लिप्त
मद मत्सर से भरा हुआ वह
वर्तमान में जीता है
पर मृत्यु से डरता है
है हाल बुढापे का ऐसा
चाहे जितनी उम्र हो जाए
जीने का मोह नहीं छूटता
आकांक्षाएं होती अनेक
जितनी भी पूरी की जाएँ
कुछ शेष रह ही जाती हैं
बल देती जीने की चाहत को
रोग यदि कोई लग जाए
वह हजार इलाज करवाए
पर मरना नहीं चाहता
आख़िरी सांस तक जीने की आस
आँखें बंद होने नहीं देती
जीने की तमन्ना रहती है
यह सभी जानते हैं
एक दिन तो जाना ही है
पर माया मोह कम नहीं होते
बल देते जीने के प्रलोभन को
यदाकदा जब सोच बदलता
अध्यात्म की ओर खींचता
यदि मन में स्थिरता आ जाए
माया मोह छूट जाता है
तब विश्रान्ति का
वह अनमोल पल आता है
अपार शान्ति छा जाती है
आत्मा स्वतंत्र हो जाती है
फिर मृत्यु से भय कैसा
यह तो एक सच्चाई है |
आशा
है स्वतंत्र विचरण उसका
नष्ट कभी नहीं होती
शरीर बनता घर उसका
पर शरीर होता नश्वर
जन्म है प्रारम्भ
तो मृत्यु है अंत उसका
अंत तो आना ही है
फिर मृत्यु से भय कैसा
सांसारिकता में लिप्त
मद मत्सर से भरा हुआ वह
वर्तमान में जीता है
पर मृत्यु से डरता है
है हाल बुढापे का ऐसा
चाहे जितनी उम्र हो जाए
जीने का मोह नहीं छूटता
आकांक्षाएं होती अनेक
जितनी भी पूरी की जाएँ
कुछ शेष रह ही जाती हैं
बल देती जीने की चाहत को
रोग यदि कोई लग जाए
वह हजार इलाज करवाए
पर मरना नहीं चाहता
आख़िरी सांस तक जीने की आस
आँखें बंद होने नहीं देती
जीने की तमन्ना रहती है
यह सभी जानते हैं
एक दिन तो जाना ही है
पर माया मोह कम नहीं होते
बल देते जीने के प्रलोभन को
यदाकदा जब सोच बदलता
अध्यात्म की ओर खींचता
यदि मन में स्थिरता आ जाए
माया मोह छूट जाता है
तब विश्रान्ति का
वह अनमोल पल आता है
अपार शान्ति छा जाती है
आत्मा स्वतंत्र हो जाती है
फिर मृत्यु से भय कैसा
यह तो एक सच्चाई है |
आशा
30 जुलाई, 2010
है मस्तिष्क बहुत छोटा सा
जाने कितनी घटनाएं होती
गहराई जिनकी
सोचने को बाद्य करती
कोई हल् नजर नहीं आता
पर मन अस्थिर हो जाता
है मस्तिष्क बहुत छोटा सा
कितना बोझ उठाएगा
बहुत यदि सोचा समझा
बोझ तले दब जएगा |
कोई दिन ऐसा नहीं जाता
की सोच को विराम मिले
मस्तिष्क को आराम मिले
जैसे ही पेपर दिखता है
होती है इच्छा पढ़ने की
पर खून खराबा मारधाड़
इससे भरा पूरा अखबार
फूहड़ हास्य या रोना धोना
टी.वी. का भी यही हाल
क्या पढ़ें और क्या देखें
निर्णय बहुत कठिन होता
छोटा सा मस्तिष्क बिचारा
बोझ तले दबता जाता
मंहगाई और भ्रष्ट आचरण
चरम सीमा तक पहुच रहे
आवश्यक सुविधाओ से भी
जाने कितने दूर हुए
नंगे भूखे बच्चे देख
आँखें तो नम होती हैं
कैसे इनकी मदद करें
दुःख बांट नही सकते
कोई हल् निकाल नही सकते
बस सोचते ही रह जाते
बोझ मस्तिष्क पर और बढा लेते
झूठे वादों पर बनी सरकार
उन पर ही टिकी सरकार
नाम जनता का लेकर
लेती उधार विदेशों से
पर सही उपयोग नही होता
कुछ लोग उसे ले जाते हें
गरीब तो पहले ही से
और अधिक पीसते जाते
देख कर हालत उनकी
तरस तो बहुत आता हें
अपने को अक्षम पा
मन और उदास हो जाता है
प्रजातंत्र का यह हाल होगा
पहले कभी सोचा न था
बीता समय यदि लौट आये
तो कितना अच्छा होगा
खुशियाँ पाने के लिए
सभी को प्रयास करना होगा
संकुचित विचार छोड़
आगे को बढ़ना होगा
बोझ मस्तिष्क का
तभी हल्का हो पाएगा
तब वह बेचारा ना होगा |
आशा
गहराई जिनकी
सोचने को बाद्य करती
कोई हल् नजर नहीं आता
पर मन अस्थिर हो जाता
है मस्तिष्क बहुत छोटा सा
कितना बोझ उठाएगा
बहुत यदि सोचा समझा
बोझ तले दब जएगा |
कोई दिन ऐसा नहीं जाता
की सोच को विराम मिले
मस्तिष्क को आराम मिले
जैसे ही पेपर दिखता है
होती है इच्छा पढ़ने की
पर खून खराबा मारधाड़
इससे भरा पूरा अखबार
फूहड़ हास्य या रोना धोना
टी.वी. का भी यही हाल
क्या पढ़ें और क्या देखें
निर्णय बहुत कठिन होता
छोटा सा मस्तिष्क बिचारा
बोझ तले दबता जाता
मंहगाई और भ्रष्ट आचरण
चरम सीमा तक पहुच रहे
आवश्यक सुविधाओ से भी
जाने कितने दूर हुए
नंगे भूखे बच्चे देख
आँखें तो नम होती हैं
कैसे इनकी मदद करें
दुःख बांट नही सकते
कोई हल् निकाल नही सकते
बस सोचते ही रह जाते
बोझ मस्तिष्क पर और बढा लेते
झूठे वादों पर बनी सरकार
उन पर ही टिकी सरकार
नाम जनता का लेकर
लेती उधार विदेशों से
पर सही उपयोग नही होता
कुछ लोग उसे ले जाते हें
गरीब तो पहले ही से
और अधिक पीसते जाते
देख कर हालत उनकी
तरस तो बहुत आता हें
अपने को अक्षम पा
मन और उदास हो जाता है
प्रजातंत्र का यह हाल होगा
पहले कभी सोचा न था
बीता समय यदि लौट आये
तो कितना अच्छा होगा
खुशियाँ पाने के लिए
सभी को प्रयास करना होगा
संकुचित विचार छोड़
आगे को बढ़ना होगा
बोझ मस्तिष्क का
तभी हल्का हो पाएगा
तब वह बेचारा ना होगा |
आशा
29 जुलाई, 2010
मैं क्या चाहती हूं ?
अपना ब्याह रचाना है ,
यह भली भांति जानती हूं ,
पर मैं कोई गाय नहीं कि ,
किसी भी खूंटे से बांधी जाऊं
ना ही कोई पक्षी हूं ,
जिसे पिंजरे में रखा जाए ,
मैं गूंगी गुड़िया भी नहीं ,
कि चाहे जिसे दे दिया जाए ,
मैं ऐसा सामान नहीं ,
कि बार बार प्रदर्शन हो ,
जिसे घरवालों ने देखा ,
वह मुझे पसंद नहीं आया ,
मैं क्या हूं क्या चाहती हूं ,
यह भी न कोई सोच पाया ,
ना ही कोई ब्यक्तित्व है ,
और ना ही बौद्धिकस्तर ,
ना ही भविष्य सुरक्षित उसका
फिर भी घमंड पुरुष होने का ,
अपना वर्चस्व चाहता है ,
जो उसके कहने में चले,
ऐसी पत्नी चाहता है ,
पर मैं यह सब नहीं चाहती ,
स्वायत्वता है अधिकार मेरा ,
जिसे खोना नहीं चाहती ,
जागृत होते हुए समाज में ,
कुछ योगदान करना चाहती हूं ,
उसमे परिवर्तन चाहती हूं ,
वरमाला मैं तभी डालूंगी ,
यदि उसे अपने योग्य पाऊँगी |
27 जुलाई, 2010
बाढ़
भीषण गर्मी से त्रस्त थे ,
आसार वर्षा के नजर ना आते थे ,
तब पूजा पाठों का दौर चला ,
हवन और अनुष्ठान हुए ,
भविष्य बाणी पंडितों की ,
और सूचनाएं मौसम विभाग की,
सभी लगभग गलत निकलीं ,
पानी की एक बूंद न बरसी ,
जैसे जैसे दिन निकले ,
सूखे के आसार दिखने लगे ,
पर एक दिन अचानक ,
काली घनघोर घटा छाई ,
बादल गरजे ,बिजली चमकी ,
बहुत तेज बारिश आई ,
झड़ी बरसात की ऐसी लगी ,
थमने का नाम न लेती थी ,
मैने जब खिड़की से बाहर झंका ,
कुछ लोगों को टीले पर देखा ,
उत्सुकता जागी मन में ,
छाता थामा ,टीले पहुंचे ,
सब बाढ़ नदी की देख रहे थे .
छोटा पुल पूरा डूब चुका था .
पानी बड़े पुल के भी ऊपर था .
जल स्तर बढ़ता जाता था ,
खतरे का निशान भी,
नजर नहीं आता था ,
नदी पूरे उफान पर थी ,
सारी सीमाएं तोडी पानी ने ,
जब खेतों में प्रवेश किया ,
फिर एक जलजला आया ,
जब निचली बस्ती जल मग्न हुई ,
कोई पेड़ पर बैठा था ,
मचान किसी का आश्रय थी ,
कुछ लोग बच्चों को ले कर ,
सड़क पार करते दिखते थे ,
त्राहि त्राहि मची हुई थी ,
हर ओर भय की चादर पसरी थी ,
जाने कितनी हानि हुई थी ,
कई स्वयंसेवी जुटे हुए थे ,
डूबतों को बचाने में ,
निर्बलों को बाहर लाने में ,
छोटी नौकाओं के सहारे ,
महिलाओं बच्चों को ,निकालने में ,
सुरक्षित स्थानों तक पहुँचाने में ,
शासन ने शाला खुल्बाई ,
निराश्रितों को राहत पहुंचाई ,
पर वह इतनी ना काफी थी ,
ऊंट के मुंह में जीरे सी थी ,
ऐसी कठिन विपरीत स्थिती,
मैने पहले ना देखी थी ,
प्रकृति से छेड़छाड़ का ,
यह तो एक नतीजा है ,
जिसे रोक ना पाए तो ,
ना जाने क्या क्या होगा |
आशा
आसार वर्षा के नजर ना आते थे ,
तब पूजा पाठों का दौर चला ,
हवन और अनुष्ठान हुए ,
भविष्य बाणी पंडितों की ,
और सूचनाएं मौसम विभाग की,
सभी लगभग गलत निकलीं ,
पानी की एक बूंद न बरसी ,
जैसे जैसे दिन निकले ,
सूखे के आसार दिखने लगे ,
पर एक दिन अचानक ,
काली घनघोर घटा छाई ,
बादल गरजे ,बिजली चमकी ,
बहुत तेज बारिश आई ,
झड़ी बरसात की ऐसी लगी ,
थमने का नाम न लेती थी ,
मैने जब खिड़की से बाहर झंका ,
कुछ लोगों को टीले पर देखा ,
उत्सुकता जागी मन में ,
छाता थामा ,टीले पहुंचे ,
सब बाढ़ नदी की देख रहे थे .
छोटा पुल पूरा डूब चुका था .
पानी बड़े पुल के भी ऊपर था .
जल स्तर बढ़ता जाता था ,
खतरे का निशान भी,
नजर नहीं आता था ,
नदी पूरे उफान पर थी ,
सारी सीमाएं तोडी पानी ने ,
जब खेतों में प्रवेश किया ,
फिर एक जलजला आया ,
जब निचली बस्ती जल मग्न हुई ,
कोई पेड़ पर बैठा था ,
मचान किसी का आश्रय थी ,
कुछ लोग बच्चों को ले कर ,
सड़क पार करते दिखते थे ,
त्राहि त्राहि मची हुई थी ,
हर ओर भय की चादर पसरी थी ,
जाने कितनी हानि हुई थी ,
कई स्वयंसेवी जुटे हुए थे ,
डूबतों को बचाने में ,
निर्बलों को बाहर लाने में ,
छोटी नौकाओं के सहारे ,
महिलाओं बच्चों को ,निकालने में ,
सुरक्षित स्थानों तक पहुँचाने में ,
शासन ने शाला खुल्बाई ,
निराश्रितों को राहत पहुंचाई ,
पर वह इतनी ना काफी थी ,
ऊंट के मुंह में जीरे सी थी ,
ऐसी कठिन विपरीत स्थिती,
मैने पहले ना देखी थी ,
प्रकृति से छेड़छाड़ का ,
यह तो एक नतीजा है ,
जिसे रोक ना पाए तो ,
ना जाने क्या क्या होगा |
आशा
सदस्यता लें
संदेश (Atom)