14 अगस्त, 2010

तुम मेरे बिना अधूरे हो

जब हम होंगे सागर के ऊपर ,
मैं तरंग बन लहरों के संग,
मीठे गीत गुनागुनाऊंगी ,
बस तुम मेरे साथ रहना ,
मैं कोई व्यवधान नहीं बनूंगी ,
यह चाहती हूं जग देखूं ,
हिलूं मिलूँ और स्नेह बटोरूँ ,
जब वन उपवन से गुजारें ,
कुछ कदम पहले पहुंच कर ,
पंख फैलाए मोरों के संग ,
घूम घूम कर ,
थिरक थिरक कर नाचूंगी ,
तुम्हारे आगमन पर,
स्वागत मैं तुम्हारा करूंगी ,
मैं हवा हूं ,
कोमल पौधों के संग,
खेलूंगी अठखेली करूंगी ,
महानगरीय संस्कृति ,
मुझे अच्छी नहीं लगती ,
मेरे साथ गाँव चलना ,
सुरम्य वादियों से गुजरना ,
रमणीय दृश्य देख वहां के ,
उनमें कहीं ना खो जाना ,
वारिध तुम यह भूल न जाना ,
तुम मेरे बिना अधूरे हो ,
जब तक साथ तुम्हारा दूंगी ,
तुम आगे बढते जाओगे ,
मैं मंद हवा का झोंका हूं ,
अस्तित्व मेरा भुला ना पाओगे ,
मेरा साथ यदि छोड़ा,
तुम कहीं भी खो जाओगे |
आशा

13 अगस्त, 2010

मन की स्थिति

इस मस्तिष्क की भी ,
एक निराली कहानी है ,
कभी स्थिर रह नहीं पाता,
विचारों का भार लिए है ,
शांत कभी न हो पाता ,
कई विचारों का सागर है ,
कुछ प्रसन्न कर देते हैं ,
पर उदास कई कर जाते हैं ,
जब उदासी छाती है ,
संसार छलावा लगता है ,
इस में कुछ भी नहीं रखा है ,
यह विचार बार बार आता है ,
विरक्त भाव घर कर जाता है ,
पर अगले ही क्षण,
कुछ ऐसा होता है ,
दबे पांव प्रसन्नता आती है ,
आनन पर छा जाती है ,
दिन में दिवास्वप्न ,
और रात्रि में स्वप्न,
आते जाते रहते हैं ,
अपने मन की स्थिति देखती हूं ,
सोचती हूं किससे क्या कहूँ ,
जब अधिक व्यस्त रहती हूं ,
कुछ कमी सपनों मैं होती है ,
कार्य करते करते ,
जाने कहाँ खो जाती हूं
पर कुछ समय बाद ,
फिर से व्यस्त हो जाती हूं ,
ऐसा क्यूँ होता है ,
मैं स्वयं समझ नहीं पाती ,
ना ही कोई असंतोष जीवन में ,
और ना अवसाद कोई ,
फिर भी सोचती हूं ,
खुद को कैसे इतना व्यस्त रखूं,
मन की बातें किससे कहूं,
मन के जो अधिक निकट हो ,
यदि यह सब उससे कहूं ,
शायद कुछ बोझ तो हल्का हो ,
मस्तिष्क और ना भटके ,
मनोविज्ञान पढ़ा है फिर भी ,
विचारों में होते बदलाव का,
कारण जान नहीं जान पाई ,
कोई हल् निकाल नहीं पाई ,
शायद संसार मैं यही होता है ,
जो मस्तिष्क पर छाया रहता है |
आशा



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11 अगस्त, 2010

इस तिरंगे की छाँव में

पन्द्रह अगस्त स्वतन्त्रता दिवस के अवसर पर विशेष रूप से लिखी गई रचना |शायद पसंद आए |
इस तिरंगे की छाँव में ,
जाने कितने वर्ष बीत गए
फिर भी रहता है इन्तजार
हर वर्ष पन्द्रह अगस्त के आने का
स्वतंत्रता दिवस मनाने का |
इस तिरंगे के नीचे
हर वर्ष नया प्रण लेते हैं
है मात्र यह औपचारिकता
जिसे निभाना होता है |
जैसे ही दिन बीत जाता
रात होती फिर आता दूसरा दिन
बीते कल की तरह
प्रण भी भुला दिया जाता |
अब भी हम जैसे थे
वैसे ही हैं ,वहीँ खड़े हैं
कुछ भी परिवर्तन नहीं हुआ
पंक में और अधिक धंसे हैं |
कभी मन मैं दुःख होता है
वह उद्विग्न भी होता है
फिर सोच कर रह जाते हैं
अकेला चना भाड़ नहीं फोड सकता
जीवन के प्रवाह को रोक नहीं सकता |
शायद अगले पन्द्रह अगस्त तक
कोई चमत्कार हो जाए
हम में कुछ परिवर्तन आए
अधिक नहीं पर यह तो हो
प्रण किया ही ऐसा जाए
जिसे निभाना मुश्किल ना हो |
फिर यदि इस प्रण पर अटल रहे
उसे पूरा करने में सफल रहे
तब यह दुःख तो ना होगा
जो प्रण हमने किया था
उसे निभा नहीं पाए
देश के प्रतिकुछ तो निष्ठा रख पाए
अपना प्रण पूरा कर पाए |
आशा

10 अगस्त, 2010

तुम क्यूँ मेरा पीछा करती हो

सुबह हो या दोपहर हो ,
जब मैं बाहर जाती हूँ ,
कभी आगे चलती हो ,
कभी पीछे ,
पर सदा साथ साथ चलती हो ,
मुझे कारण पता नहीं होता ,
तुम क्यूँ मेरा पीछा करती हो ,
तुम क्या चाहती हो
मौनव्रत लिए रहती हो ,
बार बार मुझे छलती हो ,
हो तुम आखिर कौन ,
जो मेरा पीछा करती हो ,
मेरी जासूसी करती हो ,
मैं झुकती हूं तुम झुकती हो ,
मैं रुकती हूं तुम रुकती हो ,
मेरा साथ तब भी न छोड़तीं ,
जब भी बादल होते हैं ,
या घना अंधकार होता है ,
मुझे डर भी लगता है ,
तभी साथ छोड़ जाती हो ,
तुम ऐसा क्यूँ करती हो ,
हर बार मुझे छलती हो ,
क्या रात में भी साथ रहती हो ,
मेरी सारी बातों को ,
चुपके से जान लेती हो ,
क्या तुम मेरी प्रतिच्छाया हो ,
या हो और कोई ,
तुमको मैं क्या नाम दूँ ,
यह तो बताती जाओ |
आशा

09 अगस्त, 2010

क्यूँ इस ताबूत में

क्यूँ इस ताबूत में ,
खुद को सुलाना चाहते हो ,
उसमे आख़िरी कील ,
ठुकवाना चाहते हो ,
ना ही आत्ममंथन किया ,
आत्म विशलेषण भी न किया ,
यह भी कभी न सोचा ,
कहाँ से कहाँ निकल गए हो ,
सही राह से भटक गए हो ,
मधुशाला की ओर मुड़े क्यूँ ,
आकंठ मदिरा में डूबे रहते हो ,
क्या सन्देश सब को देते हो ,
ऐसा क्या हुआ है ज़रा सोचो ,
अंदर ही अंदर घुटते रहते हो ,
माना मैं तुम्हारी कुछ नहीं लगती ,
पर मित्र भाव तो रखती हूं ,
मैने कई घरों को,
टूटते उजड़ते देखा है ,
क्यूँ बर्बादी को चुन रहे हो ,
अन्धकार में घिर रहे हो ,
इसी तरह विचलित रहे ,
अपने को सम्हाल नहीं पाए ,
फिर बापिस आना मुश्किल होगा ,
और किसी की मत सोचो ,
पर खुद का तो ख्याल करो ,
आत्म नियंत्रण नहीं किया तो ,
पंक में धसते जाओगे ,
जागो और सोचो ,
जीवन का सत्कार करो ,
आगे अभी बहुत चलना है ,
सही राह की तलाश करो |
आशा

08 अगस्त, 2010

हे जल निधि तुमसे है विनती मेरी

वर्षा ऋतु में जब भी ,
दृष्टि पड़ी अम्बर पर ,
कभी छितरे छितरे ,
कभी बिखरते बादलों को ,
तो कभी काली घनघोर घटाओं को ,
यहाँ वहां विचरते देखा ,
कई बार जल से ओत प्रोत ,
लगता जैसे अभी बरसेगे ,
पर चुपके से हवा के संग ,
जाने कहाँ निकल जाते |
धरती प्यासी ही रह जाती ,
जल के लिये तरस जाती ,
जो व्यथित होते उसके लिए ,
तलाश में जल की ,
इधर उधर निकल जाते |
पर जब बादल ,
उमढ़ घुमड़ कर आते ,
अत्यधिक वर्षा कर जाते ,
जन जीवन अस्त व्यस्त कर जाते |
यह अल्हड़पन और मनमानी ,
क्या नहीं वारिद की नादानी |
हे जळ निधि तुमसे यह विनती है मेरी ,
मेरी बात समझ लेना ,
जब भाप बने बादल उठें ,
और आगे बढ़ना चाहें|
उनसे कहना मनमानी शोभा नहीं देती ,
इधर उधर व्यर्थ ना घूमें
पहले से जान लें ,
कहाँ कितना बरसना है ,
धरती को हराभरा करना है |
हवा जो साथ ले जाती उन्हें ,
उसको भी समझा देना ,
उन्हें स्वतंत्र नहीं छोड़े ,
धीमे धीमे साथ चले ,
गति उनकी तेज न होने दे ,
गर्जन तर्जन से यदि वे,
डराना धमकाना चाहें ,
भयाक्रांत ना हो जाए ,
मनमानी उन्हें न करने दे ,
ना ही साथ कभी छोड़े |
ओ महासागर है अनुग्रह तुमसे,
तुम्ही ध्यान ज़रा दे लेना ,
अवर्षा या अधिक वर्षा ,
कहीं भी न होने देना ,
मन चले बादलों को ,
ठीक से समझा देना |
आशा

07 अगस्त, 2010

सलाखों के पीछे से ,

जेल की कोठरी में
सलाखों के पीछे से
सींकचों को थामे
सूनी सूनी आँखों से
वह ताक रहा था कहीं शून्य में
था उदास थका हुआ सा
झाँक रहा था अपने मन में
बार बार वह दृश्य भयावह
उसके समक्ष आ जाता था
सिहरन सी होती थी मन में
मन को कचोटती थीं बातें
एक बड़ी भूल की थी उसने
जो साथ दिया ऐसे लोगों का
वे तो बच कर निकल गए
ह्त्या के आरोप में
उसे फंसा कर चले गए
वह तो केवल वहाँ खड़ा था
बीच बचाव कर रहा था
फिर क्यूँ किसी का साथ पा न सका
बाहर जेल के आ न सका
पत्नी भी भयभीत बहुत थी
हिचकी भर भर रोती थी
बच्चे बाहर जा नहीँ सकते
क्यूँ कि वे कहलाते हत्यारे के बच्चे 
जाने कब तक केस चलेगा
क्या ईश्वर भी रक्षा न करेगा
अब तो घुट घुट कर मरना है
अन्य कैदियों की हरकतों से
रोज ही दो चार होना है
कुछ कैदी शांत रहते हैं
पर कुछ असयंत व्यवहार करते हैं
जब भी कोर्ट जाना पड़ता है
नफरत से लोग देखते हैं
सब देख बहुत बैचेनी होती है
वकीलों के चक्कर काट काट
सर से छत भी छिन गई है
अब पत्नि और बच्चे रहते हें
एक किराए की झोंपड़ी में
समाज सेवा का भूत
उतर गया है अब सर से
एक ही बात याद आती है
ना हो साथ ऐसे लोगों का
जो समाज सेवा का दम तो भरते हैं
पर मन में कपट रखते हैं
अपना मतलब हल करने के लिए
चाहे जिसे फँसा सकते हैं
किसी भी हद तक जा सकते हैं |
आशा







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