01 नवंबर, 2010

ऐ दिल तुझे क्या हो गया है

ऐ दिल तुझे क्या हो गया है
गलत कदम उठाया क्यूँ
रिश्ता ऐसा बनाया क्यूँ
जो निभाना संभव न था
था नियम विरुद्ध समाज के
लोगों ने रोकना चाहा 
कुछ ने तो टोका भी 
तब भी सचेत ना हो पाया
और गर्त में फँसता गया
वापिस लौट नहीं पाया
बहुत व्यस्त किया स्वयं को
फिर भी भूल नहीं पाया
बार-बार वही बात, वही रोना
उसमें ही खोये रहना
अब तो दर्द भी
दिखने लगा है चेहरे पर
यह कितने दिन यूँ ही रहेगा
ना कोई दवा इसकी
और ना कोई असर इस पर
भूले से जो भूल हुई थी
यदि उसे सुधारा होता
पूरी तरह भुला दिया होता
नियंत्रण खुद पर रखा होता
तब तू यूँ बेचैन ना होता |


आशा

31 अक्तूबर, 2010

मैं लिखती हूँ तेरे लिये

सब लिखते हैं स्वयं के लिये ,
आत्म संतुष्टि के लिये ,
पर मैं लिखती हूँ तेरे लिये ,
कहीं तेरा लगाया यह पौधा ,
मुरझा ना जाये ,
तू उदास ना हो जाये ,
रोज पानी देती हूँ ,
खाद देती हूँ ,
तेरे उगाए पौधे को ,
बहुत प्यार करती हूँ ,
मुरझाये पीले पत्तों की ,
काट छाँट करती हूँ ,
बस रह जाते हैं ,
हरे-हरे नर्म-नर्म,
कोमल मखमली पत्ते ,
अब तो फूल भी आ गये हैं ,
फल की आशा रखती हूँ ,
जिस दिन पहला फल आयेगा ,
तुझे ही समाचार दूँगी ,
तेरी देखरेख बगिया की ,
व्यर्थ नहीं जाने दूँगी ,
मेहनत से नहीं डरती ,
पूरी शक्ति लगा दूँगी ,
यह पेड़ फलफूल रहा है ,
दूसरा बोने की इच्छा है ,
उन्नत बीज तुझी से मिलेगा ,
खाद पानी की जुगत करूँगी ,
तभी वह चेत पायेगा ,
दिन रात बड़े जतन से ,
उसकी भी सेवा करूँगी ,
सबसे रक्षा करूँगी ,
सुगन्धित पुष्पों से जब ,
वह भी लड़ जायेगा ,
तुझे और उन सब को ,
जो प्रोत्साहित करते हैं ,
दिल से साधुवाद दूँगी !


आशा

है यह कैसा व्यवसाय

है कैसा व्यवसाय
जो फल फूल रहा
कुकर मुत्ते सा 
चाहे जहां दिख जाता 
रहते लिप्त सभी जिसमें
ऊपर से नीचे तक |
बिना बजन के
कोई फाइल नहीं हिलती
कितनी भी आवश्यकता हो
अनुमति नहीं मिलती
हें सजी कई दुकानें
यह व्यवसाय जहां होता |
देने वाला भी प्रसन्न
लेने वाला अति प्रसन्न
पहला सोचता है
कोई व्यवधान ना आए
दूसरा इसलिए कि
नव धनाड्य हो जाए |
हें जितने लोग लिप्त इसमें
ढोल में पोल की
कड़ी बने हें
धन अधिक पा जाने पर
हर संभव पूर्ती करते हें
दबी हुई आकांक्षा की
जब भय होता
पकडे जाने का
मुंह छिपाए फिरते हें
ले कर सहारा इसका ही
बेदाग़ छूट भी जाते हें
है यह विज्ञान या कला
विश्लेषण करना है  कठिन
विज्ञान में शोध होते हें
नियम सत्यापित भी होते हें
कला होती संगम भावनाओं का
मिलता नया रूप जिसे
भावनाओं से दूर बहुत
ना ही कोई नियम धरम
यह दौनों से मेल नहीं खाता
लगता सबसे अलग
इसे क्या कहें
घूसखोरी ,तोहफा या रिश्वत |
आशा

29 अक्तूबर, 2010

तुम हो एक सौदागर


तुम हो एक सौदागर
लुभाते अपने व्यक्तित्व से
अनजाने में कभी कभी
बातों को हवा देते 
भावनाओं को उभार कर
मन मस्तिष्क पर छाते गए
फिर कहीं चले गए
दर्द अजीब सा दे गए
नाम ह्रदय पर लिख गए |
यही सब यदि करना था
भुलाने की कोई विधि
तो बता कर जाते
या विस्मृति की
दवा ही दे जाते |
कभी किसी बात को
अधिक ही उछाल देते थे
पर किसी ने न जाना
कि तुम बेवफा थे |
तस्वीर जो दी तुमने
चैन से जीने नहीं देती
बहुत बेचैन करती है
अतीत याद दिलाती है |
लोग तुमसे जोड़ कर
मेरा नाम तक लेने लगे
जाने क्यूं ऐसा कहने लगे |
याद तो उन्हें किया जाता है
जो प्यार करते हों
या इस दुनिया में
अपना नाम कर गए हों |
जी चाहता है
कहीं तुम मिल जाओ
मेरी भावनाओं को
फिर से रंग जाओ
इन्तजार न रहे
ऐसा कुछ कर जाओ |
कहां तक सोचूं तुम्हारे लिए
कई ऋतुएं बीत गईं
अब तो लगता है
हर मौसम भी हरजाई |
आशा

28 अक्तूबर, 2010

हो शरद पूनम की रात

हो शरद पूनम की रात
और सर पर हो
माँ शारदे का हाथ
स्वर्णिम आभा होती है
होती है वर्षा अमृत की
उससे जो सुख मिलता है
कैसे विचारों में ढालूँ उसे
उस अदभुद दृश्य को
कैनवास पर उतारूं कैसे
चांद जब उतरता आंगन में
खुशियों से भर देता आंचल
उसे देख उत्पन्न भाव,
को कैसे अभिव्यक्ति दूं
शब्द नहीं मिलते
तब वाग देवी समक्ष होती है
कलम में लगी जंग दूर होती है
कुछ नया लिखने के लिए
अंतरद्वंद बढने लगता है
और जंग विचारों की
थमने का नाम नहीं लेती
कुछ नया सृजन होता है
 सुकून मन को मिलता है |

आशा

27 अक्तूबर, 2010

है अनूठा जलनिधि,

है अनूठा जल निधि
कभी शांत तो कभी रौद्र
जब भी शांत होता है
मन भावन दृश्य होता है
लहरों का आना जाना
फेनिल जल का तट छू जाना
सीपी घोंगे ,जाने क्या क्या
किनारों पर ही छोड़ जाना
उनका संचय अच्छा लगता है |
मछुआरों की नौकाएं
गहरे समुद्र तक जातीं हें
करती एकत्र सागर संपदा
देती संतुष्टि माझी को
जब शाम होने लगती है
सूरज अस्ताचल का
रुख करता है
तभी लौटती नौकाएं
जल पर तैरती उतरातीं
बार बार हिचकोले लेतीं
स्पर्धा करतीं लहरों से
दृश्य मनोहर लगता है |
बहुत दूर समुन्दर में
जहाज का मस्तूल
दिखाई देता है
मानो वह जहाज को
अपनी गोद में लिए बैठा है|
विश्रान्ति के पलों में माझी
खो जाता है सपनों में
तोयधि का गर्जन तर्जन
उसे विचलित नहीं करता ,
लहरों का साथ यदि न हो ,
उसे अच्छा नहीं लगता |
जब होता सागर अशांत
बड़ी बड़ी ऊंची लहरें
टकरातीं जब चट्टानों से
,वह अट्टहास करता है
जब कोई उत्तंग लहर
टकरा कर तट से
लौट रही होती
और एक अन्य लहर
उस पर से गुजरती है
दृश्य जलप्रपात सा दिखता है |
नाव समुन्दर में डालना
तब सरल नहीं होता
यदि टकरा जाए लहर से
फिरसे आ लगती है तट पर
कई बार प्रयत्न करते माझी
सफलता तभी मिल पाती है
नौका समुद्र में जा पाती है |
जब समुद्र उग्र होता है
अपना आपा खो देता है
तभी कहर टूटता है
हानि होती जन धन की |
फिरभी विशालता उसकी
,कई रहस्य समेटे रहती है |
उस अथाह जल राशी में
है अनूठा आकर्षण
बार बार खींच ले जाता
है विपरीत भावों का संगम
कभी शांत तो कभी उग्र |
छिपी अपार संपदा इसमें
कई लोगों को जीवन देता है
पर यदि आपा खो बैठे
कई जीवन हर लेता है |
आशा







,

26 अक्तूबर, 2010

है माँ तेरी


वह चाहती नहीं कि
कोई तुझसे कुछ कहे
है बस अधिकार उसी का
जो भी कहे वही कहे
तू भी कुछ न कहे
केवल सुने
और उसी से जुड़ा रहे
कोई अन्य अपना
वर्चस्व न जता पाए
ना ही तुझे भरमाए
तू है दूर मीलों उससे
फिर भी हर आहट
तेरी ही लगती है
तुझे अगर ठोकर लगे
वह जान लेती है
कुछ कर तो नहीं सकती
पर सचेत कर देती है
है माँ तेरी
 भला चाहती है तेरा
उसे स्वीकार नहीं
तू मनमानी करे
कठिन परिस्थिति से गुजरे
यदि कुछ उसकी सुने
विचार करे
सलाह का सत्कार करे
तभी शायद तुझे
सही राह मिल पाएगी
तेरी दशा सुधर पाएगी |
आशा