19 नवंबर, 2010

बैलगाड़ी

दो पहियों की बैलगाड़ी ,
खींचते बैल जिसे ,
लकड़ी बाँस लोहा अदि,
होते साधन बनाने के ,
भार चाहे जितना होता ,
पहिये ही उसे वहन करते ,
अपना कर्त्तव्य समझ वे ,
पीछे कभी नहीं हटते |
है परिवार भी एक बैलगाड़ी ,
पति पत्नी गाड़ी के पहिये ,
संबंधी कभी सहायक होते ,
बच्चे मन का बोझ हरते ,
हो जाता पूरा परिवार ,
गाड़ी जीवन की चलती जाती ,
पर भार होता केवल ,
दोनों के कन्धों पर |


आशा

17 नवंबर, 2010

मन की ऑंखें

मन ने सोचा खोली आँखें ,
देखा अपने आस पास ,
था कुछ विशिष्ट इन आँखों में ,
कल्पना ने उड़ान भारी
ली अनुमति इन आँखों से ,
दूर जाती एक पगडंडी तक ,
जो खो जाती घने जंगल में ,
हैं अनगिनत निशान उस पर ,
हैं दस्तावेज उन क़दमों के ,
जो सुबह शाम बनते मिटते ,
कहते कथा वहाँ रहने वालों की ,
नित नए निशान करते वर्णन ,
उस दिन हुई घटनाओं की |
बहुत निकट झुण्ड हिरणों का ,
ओर दर्शन बायसन समूह का ,
एकाएक सुन दहाड़ बाघ की ,
सारा जंगल गूँज उठा ,
पशु पक्षी कॉल दे दे कर ,
उपस्थिति उसकी दर्शाने लगे ,
जैसे ही वह गुज़र गया ,
शांत हुआ पूरा जंगल ,
शेष था कहीं-कहीं बहता पानी ,
ठंडी हवा और घना जंगल |
जाने अनजाने कितनी बातें,
सहेजी गईं कल्पना में ,
हालत कुछ ऐसी हुई ,
ह़र जगह वही दिखने लगा ,
जो देखा मन की आँखों ने ,
और सिमटने लगा ,
दृश्यों में, कृतियों में |
एक झाड़ी की दो शाखाएँ ,
पीछे उसके बड़ा पत्थर ,
हिरन सा ही दिखने लगा ,
पास पहुँच जब देखा ,
पाया केवल पेड़ और पत्थर |
सच्चाई सामने आई ,
तरस भी आया एक बार ,
मन की आँखों पर ,
कल्पना की उड़ान पर ,
फिर भी जो आनन्द मिला ,
भूल ना पाई आज तक |
हैं आखिर मन की आँखें ,
जो सोचती हैं वही देखती हैं ,
होता है ऐसा क्यूँ ?
यह तक नहीं समझ पाई ,
इस क्यूँ से परेशानी क्यूँ ,
जब मिलता भरपूर ,
आनंद मन की आँखों से |


आशा

16 नवंबर, 2010

इच्छा अधूरी रही मन में

इच्छा अधूरी रही मन में ,
कि दो कदम साथ चलो ,
बेगानों का साथ छोड़ ,
कभी अपनों को भी याद करो ,
यूँ चुप ना रहो अनसुनी न करो ,
कुछ तो बोलो बात करो ,
पर तुम मौन हुए ऐसे ,
खुद को अपने में कैद किया ,
चाहा पर लब नहीं खोले ,
शब्द मुँह से नहीं निकले ,
हो गये इतनी दूर कि ,
यह दूरी नहीं पट पाती ,
गैरों के साथ के अहसास की ,
छाया नहीं मिट पाती,
जब भी मौन टूटे, दिल बोले ,
मन का बोझ हल्का करना हो ,
मुझे याद कर लेना ,
ज़रा सी जगह दिल के कोने की ,
मेरे लिए भी रख लेना ,
किसी और को ना देना ,
शायद यह दूरी मिट जाये ,
कभी मेरी याद आये ,
और इच्छा पूरी हो पाये ,
दो कदम साथ चलने की |


आशा

14 नवंबर, 2010

है तू क्या ?

है तू क्या मैं समझ नहीं पाती
एक हवा का झोंका
भी सह नहीं पाता
खिले गुलाब की पंखुड़ी सा
इधर उधर बिखर जाता
है नाजुक इतना कि
दर्द तक सहन नहीं होता
पंकज सा तैरता रहता
इस नश्वर सरोवर में
नहीं डरता किसी उर्मी से
ना ही आँच आने देता
अस्तित्व पर अपने
संगीत की मधुर स्वर लहरी
जैसे ही तुझे छू जाती 
तुझे स्पंदित कर जाती है
पर एक कटु वचन
तुझे हिला भी सकता है
जो भी हो तेरी विशालता
तेरी गहराई नापना मुश्किल है
है तू क्या ?
क्या है विशेष तुझमें
जानना बहुत कठिन है
कवियों ने या शायरों ने
तुझे समझा या ना समझा हो
पर जब भी नया सृजन होता है
तेरा संदर्भ जरूर होता है |
चाँद तारों पर लोग लिखते हैं
पर तुझ पर नगण्य लिखा हो
ऐसा भी नहीं है
दर्द बाँटने की  क्षमता की 
अदभुद मिसाल है तू
बोझ तले दबा हुआ हो
पर अहसास तक होने नहीं देता
तुझ पर जो भी लिखा जाये
बहुत कम लगता है
सच में बेमिसाल है तू
ए हृदय तुझे कैसे पहचानूँ
किस मिट्टी का बना है तू
है कितनी गहराई तुझ में
इसका आभास ही बहुत है |


आशा

13 नवंबर, 2010

डाल से बिछुड़ा एक पत्ता

घना घनेरा साल वन
ऊँचे-ऊँचे वृक्ष वृन्द
सूर्य किरणों से
हाथ मिलाने की होड़ में
ऊँचे और ऊँचे होते जाते
एक पेड़ की टहनी से
बिछड़ा एक पीला सूखा पत्ता
मंद हवा के साथ-साथ
गोल-गोल घूम रहा
धीमी गति से आते-आते
नीचे की धरती ताक रहा
कई विचारों का मंथन
और मन में उथल पुथल
अपना अस्तित्व तलाश रहा
गहन मनन चिंतन
बहुत बार किया उसने
पर एक ही झटके में
जैसे ही धरती छुई उसने
अपनों से बिछुड़ जाने पर
व्यथित बहुत मन हुआ
कुछ पल भी ना बीते होंगे
एक राहगीर ने अनजाने में
उस पर अपना पैर रखा
जैसे ही पैर पड़ा उस पर
वह बच न सका
टूट गया
अपनों से अलग होने का दुःख
मन ही मन में रह गया
कुछ सोच भी न पाया था कि
स्वयं धूल धूसरित हुआ
धरती में विलीन हुआ
और सो गया चिर निंद्रा में
दूसरी सुबह भी ना देख सका |


आशा

06 नवंबर, 2010

मेरी यादो में ---

मेरी यादों में तू भी,
कभी रोया होगा ,
मेरी तस्वीर को,
आँसुओं से भिगोया होगा ,
पुरानी बातों का जिक्र ,
हर बार हुआ करता था ,
दिल की बातों का इज़हार ,
हो कैसे मालूम न था ,
यूँ बिछुड़ जायेंगे ,
यह सोचा न था ,
कभी ना मिल पायेंगे ,
इसका अन्दाज़ा न था ,
जब भी तेरे साये से ,
लिपट कर रोया मैं ,
सीने में उठे दर्द को ,
सम्हाल ना पाया मैं |


आशा

05 नवंबर, 2010

मन खिन्न हुआ








                                                               मन खिन्न हुआ दिल टूट गया
थी  जो अपेक्षा   उस पर खरे न उतरे 
जाने कितने अहसान किये
पर जताना कभी नहीं भूले
संख्या इतनी बढ़ी कि
 भार सहन ना हो पाया
बेरंग ज़िंदगी का एक और रूप नज़र आया
कहने को  सब कुछ है पर कहीं न कहीं अंतर है
छोटी-छोटी बातों से
 किरच-किरच हो दिल बिखर गया
गहरे सोच में डूब गया
 वेदना ने दिये ज़ख्म ऐसे
नासूर बनते देर न लगी
अब कोई दवा काम नहीं करती
अश्रु भी सूख गये अब तो
पर आँखे विश्राम नहीं करतीं 
वेदना इतनी गहरी कि
रूठा मन शांत नहीं होता
है इन्तजार उस परम सत्य का
जब काया पञ्च तत्व में विलीन होगी
झूठी माया व्यर्थ का मोह
 सभी से मुक्ति मिल पायेगी
वेदना तभी समाप्त हो पाएगी |

                                                                           आशा