जाति प्रथा का जन्म हुआ था
कार्य विभाजन के आधार पर
संकुचित विचार धारा ने
घेरा इसे कालान्तर में
शहरों में दिखा कम प्रभाव
पर गाँवों में विकृत रूप हुआ
जो भी वहाँ दिखता है
मन उद्वेलित कर देता है
ऊँच नीच और छुआ छूत
हैं अनन्य हिस्से इसके
दुष्परिणाम सामने दिखते
कोई नहीं बचा इससे
आपस में बैर रखते हैं
मनमुटाव होता रहता है
असहनशील हैं इतने कि
रक्तपात से नहीं हिचकते
बलवती बदले की भावना
जब भी हो जाती है
हो जाते हैं आक्रामक
सहानुभूति जाति की पा कर
और उग्र हो जाते हैं
है स्वभाव मानव का ऐसा
बदला पूरा ना हो जब तक
चैन उसे नहीं आता
अधिक हिंसक होता जाता
लूटपाट और डकैती
नियति बनती जाने कितनों की
इनसे मुक्ति यदि ना मिलती
चम्बल का बीहड़ बुलाता
रोज कई असहिष्णु लेते जन्म
आपस में उलझते रहते
जाति प्रथा के तीखे तेवर
देते हवा उपजते वैमनस्य को
मानव स्वभाव की उपज
और जातिवाद की तंग गलियाँ
कितना अहित करती हैं
क्या उचित इन सब का होना
शांत भाव से जीने के लिए
मनुज स्वभाव बदलने के लिए
है आवश्यक इनसे बचना
और आत्मनियंत्रित होना |
आशा