है क्यूँ इतना गुमान
इस क्षण भंगुर काया पर
क्यूँ होता अभिमान
दूसरों का अपमान कर
क्या यह उचित करती हो
ऐसा व्यवहार
नहीं अपेक्षित तुमसे
गुण स्थाई होते हैं
काया नहीं
यही काया एक दिन कृशकाय
तो दूसरे दिन
कंकाल हो जाती है |
इन परिवर्तनों में
समय कब निकल जाता है
पता ही नहीं चलता
क्या कभी विचार किया है
अपने गुणों का सदुपयोग
क्यूँ नहीं करतीं
इतनी रूप गर्विता हो
धरती पर पैर नहीं रखतीं
जब जुड़ी नहीं जमीन से
तब कैसे सब से
प्रेम बाँट पाओगी
ईश्वर ने भेजा इस जग में
सद्भाव बढ़ाने के लिये
हो अपने में इतनी व्यस्त
कि बहुत कृपण हो जाती हो
प्रेम सब को बाँटने में |
रूप गर्विता हो
तुम्हारा यही सोच
ठीक नहीं है
तुम यहीं सही नहीं हो |
गुणों का महत्व जानती हो
फिर भी अपनाने की
पहल नहीं करतीं
क्या यहीं तुम गलत नहीं हो ?
आशा