15 जून, 2011

है सम्बन्ध असंभव

है सामान्य कद काठी ,काला रंग भ्रमर सा
रिश्ते की चाहत ने उसे ,बेकल बनाया है |

तेज पैनी निगाह से ,पहले देखता रहा
दिखाए झूठे सपने ,उसे बहकाया है |

उसकी बातें सभी को ,प्रभावित कर जातीं
अपनी झूठी बातों से ,दुःख पहुंचाया है |

सौ बात की एक बात ,सम्बन्ध है असंभव
उसके व्यवहार ने ,मन को दुखाया है |

आशा

13 जून, 2011

स्वार्थ सर्वोपरी


सारी सत्ता सारा बैभव

यहीं छूट जाता है

बस यादे रह जाती हैं

व्यक्तित्व की छाप की |

आकर्षण उनका भी

उन लोगों तक ही

सिमट जाता है

यदि कोई काम

उनका किया हो

या कोई अहसान

उन पर किया हो |

कुछ लोग ऐसे भी हैं

होता कोई न प्रभाव जिन पर

जैसे ही काम निकल जाता है

रास्ता तक बदल जाता है |

कहीं कुछ भी होता रहे

अनजान बने रहते हैं

भूले से भी यदि

पहुंच गये

तटस्थ भाव

अपना लेते हैं

जैसे पह्चानते ही न हों |

क्यूँ कि संवेदनाएं

मर गई हैं

वे तो वर्तमान में जीते हैं

कल क्या होगा

नहीं सोचते |

यदि दुनिया के सितम

बढ़ गए

उन्हें कंधा कौन देगा

उनके दुःखों को

बांटने के लिए |

आशा

11 जून, 2011

यहाँ कुछ नहीं बदलता


जब देखे अनेक चित्र
ओर कई रँग उसके
जाने की इच्छा हुई
अनुभव बढ़ाना चाहा |

समझाया भी गया
वहाँ कुछ भी नहीं है
जैसा दिखता है
वैसा नहीं है |

पंक है अधिक
कुछ खास नहीं है
जो भी वहाँ जाता है
उसमें फंसता जाता है|

पर कुछ पौधे ऐसे हैं
जो वहाँ ही पनपते हैं
फलते फूलते हैं
हरे भरे रहते हैं |

राजनीति है ऐसा दलदल
जहां नोटों की है हरियाली
जो भी वहाँ जाता है
आकण्ठ डूबता जाता है |

सारी शिक्षा सारे उसूल भूल
सत्ता के मद में हो सराबोर
जिस ओर हवा बहती है
वह भी बहता जाता है |

उस में इतना रम जाता है
वह भूल जाता है
वह क्या था क्या हो गया है
अस्तित्व तक गुम हो गया है |

कभी तिनके सा
हवा में बहता है
फिर गिर कर उस दलदल में
डूबने लगता है |

तब कोई मदद नहीं करता
आगे आ हाथ नहीं थामता
है यह ऐसा दलदल
यहाँ कुछ भी नहीं बदलता |


आशा












10 जून, 2011

हर कहानी अधूरी है


कई कथानक कई कहानियां
पढ़ी सुनी और मनन किया
पर हर कहानी अधूरी लगी
थी अच्छी फिर भी कहीं कमी थी |
जीवन के किसी एक पक्ष को
करती है वह उजागर
पर जो भी कहा जाता है
पूरे जीवन का सत्व नहीं है |
अनगिनत घटनाएं
होती रहती हैं
कुछ तो यादगार होती हैं
भुला दिया जाता कुछ को |
कभी अच्छी लगती हैं
आघात कभी दे जाती हैं
यदि बहुत विचार किया
मन चंचल कर जाती हैं |
अंत जीवन का हो
या कहानी का
जब भी लिखा जाए
अधूरा ही रह जाता है |
कितना भी विचार कर
लिखा जाए
आगे और भी
लिखा जा सकता है |
इसी लिए लगता है
हर कहानी चाहे जैसे लिखी जाए
उसके आगे और भी
लिखा जा सकता है |

आशा



08 जून, 2011

है यह कैसा प्रजातंत्र


सत्य कथन सत्य आचरण
देश हित के लिए
बढ़ने लगे कदम
सोचा है प्रजातंत्र यहाँ
अपने विचार स्पष्ट कहना
है अधिकार यहाँ |
उसी अधिकार का उपयोग किया
सत्य कहा
कुछ गलत ना किया
फिर भी एक चिंगारी ने
पूरा पंडाल जला डाला
कितने ही आह्त हुए
गिनती तक ना हो पाई
सक्षम की लाठी चली
आंसुओं की धार बही
धारा थी इतनी प्रवाल कि
विचारों को भी बहा ले चली |
दूर दूर तक वे फैले
जनमानस में
चेतना भरने लगे
उन्हें जाग्रत करने के लिए
फिर भी अंदर ही अंदर
सक्षम को भी हिला गए |
स्वतंत्र रूप से अपने विचार
सांझा करने का अधिकार
क्या यहाँ नहीं है
जब कि देश का है नागरिक
स्वतंत्रता अभिव्यक्ति की नहीं है |
आज भी बरसों बाद भी
मानसिकता वही है
जोर जबरदस्ती करने की
अपना अपना घर भरने की
आदत गई नहीं है |
यदि कोई सही मुद्दा उठे
नृशंसता पूर्ण कदम उठा
उसे दबा देने की
इच्छा मरी नहीं है |
है यह कैसा प्रजातंत्र
जो खून के आंसू रुलाता है
है कुछ लोगों की जागीर
उनको ही महत्त्व देता है |
यदि कोई अन्य बोले
होता है प्रहार इतना भारी
जड़ से ही हिला देता है
पूरी यही कोशिश होती है
फिर से कोई ना मुंह खोले |

आशा




07 जून, 2011

वास्तविकता कोयल की


जैसे ही ग्रीष्म ऋतु आई

जीवों में बेचैनी छाई

वृक्ष आम के बौरों से लदे

आगई बहार आम्र फल की |

पक्षियों की चहचाहट

कम सुनने को मिलती थी

मीठी तान सुनाती कोयल

ना जाने कहाँ से आई |

प्रकृति सर्वथा भिन्न उसकी

रात भर शांत रहती थी

होते ही भोर चहकती थी

उसकी मधुर स्वर लहरी

दिन भर सुनाई देती थी |

जब पेड़ पर फल नहीं होंगे

जाने कहाँ चली जाएगी

मधुर स्वर सुनाई न दे पाएंगे

वातावरण में उदासी छाएगी |

दिखती सुंदर नहीं

कौए जैसी दिखती है

पर मीठी तान उसकी

ध्यान आकर्षित करती है |

घर अपना वह नही बनाती

कौए के घोसले में चुपके से

अंडे दे कर उड़ जाती

वह जान तक नहीं पाता |

ठगा जाता नहीं पहचानता

ये हैं किसके ,उसके अण्डों के साथ

उन्हें भी सेता बड़े जतन से

गर्मीं दे देखभाल करता |

बच्चे दुनिया में आ, बड़े होते

जब तक वह यह जानता

वे उसके नहीं हैं

तब तक वे उड़ चुके होते |

कहलाता कागा चतुर

फिर भी ठगा जाता है

है अन्याय नहीं क्या ?

कोयल का रंग काला

पर है मन भी काला

कौए सा चालाक पक्षी भी

उससे धोखा खा जाता |

आशा

04 जून, 2011

ये अश्रु


ये अश्रु हैं हिम नद से
यूँ तो जमें रहते हैं
पर थोड़ी ऊष्मा पाते ही
जल्दी से पिघलने लगते हैं |
ले लेते रूप नदी का
कभी बाढ भी आती है
तट बंध तोड़ जाती है
जाने कितने विचारों को
साथ बहा ले जाती है |
तब जल इतना खारा होता है
विचारों के समुन्दर से मिल कर
साथ साथ बह कर
थी वास्तविकता क्या उसकी
यह तक याद नहीं रहता |
अश्रु हैं इतने अमूल्य
व्यर्थ ही बह जाना इनका
बहुत व्यथित करता है
बिना कारण आँखों का रिसाव
मन पर बोझ हो जाता है |
आशा