09 जुलाई, 2011
कांटा गुलाब का
08 जुलाई, 2011
आज भी वही बात
तुम भूले वे वादे
जो रोज किया करते थे
बातें अनेक जानते थे
पर अनजान बने रहते थे |
तुम्हारी वादा खिलाफी
अनजान बने रहना
बिना बाट रूठे रहना
बहुत क्रोध दिलाता था |
फिर भी मन के
किसी कौने में
तुम्हारा अस्तित्व
ठहर गया था |
बिना बहस बिना तकरार
बहुत रिक्तता लगती थी
तुमसे बराबरी करने में
कुछ अधिक ही रस आता था |
वह स्नेह और बहस
अंग बन गए थे जीवन के
रिक्तता क्या होती है समझी
जब रास्ते अलग हुए |
बरसों बाद जब मिले
बातें करने की
उलाहना देने की
फिर से हुई इच्छा जाग्रत |
जब तुम कल पर अटके
कसमों वादों में उलझे
तब मैं भी उन झूठे बादों की
याद दिलाना ना भूली |
पर आज भी वही बात
ऐसा मैंने कब कहा था |
यह तो तुम्हारे,
दिमाग का फितूर था |
आशा
06 जुलाई, 2011
ग़म
अपने ग़मों के साथ
कई ग़म और लिये फिराता हूँ
देता हूँ तसल्ली उनको
खुद उन्हीं में डूबा रहता हूँ |
नहीं चाहता छुटकारा उनसे
वे हमराज हैं मेरे
हम सफर हैं जिंदगी के
जाने अनजाने आ ही जाते हैं
स्वप्नों को भी सजाते हैं |
हद तो जब हो जाती है
जाने कब चुपके से
मेरे मन में उतर जाते हैं
मन में बसते जाते हैं |
अब तो बिना इनके
अधूरी लगती है जिंदगी
क्यूँ कि खुशी तो
क्षणिक होती है |
इनका अहसास ही जताता है
दौनों में है अंतर क्या
इन्हीं से सीख पाया है
धबरा कर जीना क्या |
अब जहां कहीं भी जाएँ
बचैनी नहीं होती
क्यूँ कि साथ जीने की
आदत सी हो गयी है |
खुशियों की झलक होती मुश्किल
हैं मन के साथी ग़म
सदा साथ रहते हैं
बहते दरिया से होते हैं |04 जुलाई, 2011
एक अनुभव बौलीवुड का
गहरा प्रभाव था चल चित्रों का मुझ पर
चेहरे पर चमक आ जाती थी आइना देख कर |
चस्का हीरो बनाने का इस तरह हावी हुआ
आगा पीछा कुछ ना देखा मुम्बई का रुख किया |
सुबह हुई आँख खुली खुद को स्टेशन पर पाया
मुंह धोने नल तक पहुंचा कोई बैग उठा कर चल दिया|
ना तो थे पैसे पास में ना ही ठिकाना रहने का
बस देख रहा था सड़क पर आती जाती गाड़ियों को |
अचानक एक गाड़ी रुकी इशारे से पास बुलाया
कहा क्या घर से भाग आए हो, कुछ काम करना चाहते हो |
कुछ करना हो तो मुझ से मिलना ,मैंने जैसे ही सिर हिलाया
स्वीकृति समझ पता बताया, और आगे चल दिया |
वहाँ पहुंच कर देखा मैंने , कोई शूटिग चल रही थी
भीड़ की आवश्यकता थी ,उत्सुकता मेरी भी कम न थी |
मिलते ही कुछ प्रश्न किये ,देखा परखा और शामिल कर लिया
शूटिग समाप्त होते ही ,कुछ रुपए दे चलता किया |
थकान बहुत थी , फुटपाथ पर ही सो गया
था बड़ा अजीब शहर ,वहाँ सोने के पैसे भी मांग लिए |
अब मेरी यही दिनचर्या थी, दिन भर भटकता था
कभी काम मिल जाता था कभी भूखा ही सो जाता था |
चेहरे का नूर उतरने लगा ,नियमित काम न मिल पाया
बॉलिवुड की सच्चाई ,पहचान नहीं पाया |
बापिसी की हिम्मत जुटा नहीं पाया
क्या खोया क्या पाया आकलन ना कर पाया |
अब तक हीरो बनाने का भूत भी पूरा उतर गया था
अपनी भूल समझ गया था ,सपनों से बाहर आ गया था |
एक दिन बड़े भाई आए जबरन घर बापिस लाए
आज अपने परिवार में रहता हूँ छोटी सी नौकरी करता हूँ |
जब भी वे दिन याद आते है ,लगता है मैं कितना गलत था
केवल सपनों में जीता था वास्तविकता से था दूर |
थी वह सबसे बड़ी भूल ,जो आज भी सालती है
चमक दमक की दुनिया की सच्चाई कुछ और होती है |
01 जुलाई, 2011
जहां अपार शान्ति होती है
चंचल चपल धवल धाराएं
मार्ग अपना प्रशस्त किया
आगे बढ़ीं सरिता बनीं |
अलग अलग मार्गों से आईं
मंदाकिनी विलीन हो गयी
अलखनंदा में मिल गयी
नदिया में बिस्तार आया
वह और रमणीय हो गयी |
आसपास हरियाली थी
तेज बहती जल धारा थी
कल कल ध्वनि बहते जल की
खींच रही थी अपनी ओर |
घंटों बैठे उसे निहारते
नयनों में वे दृश्य समेटे
एक चित्र कार बैठा पत्थर पर
उकेरता उन्हें कैनवास पर |
जब दिन ढला शाम हुई
दी दस्तक चाँद ने रात में
चंचल किरणें खेलने लगी
जल धारा के साथ में |
खेलता चन्द्रमा लुका छिपी
पेड़ों से छन कर आती
घरोंदों में होती रौशनी से
था दृश्य ही ऐसा
कि मन की झोली में भर लिया |
अब जब भी मन उचटता है
कहीं दूर जाना चाहता है
आखें बंद करते ही
वे दृश्य उभरने लगते हैं
मन सुकून से भर जाता है |
सच कहा था चित्रकार नें
जहां अपार शान्ति होती है
मानसिक थकान नहीं होती
कुछ नया सर्जन होता है |
आशा
30 जून, 2011
नार बिन चले ना
नार कटवाती दाई ,जन्म होता सुखदाई
मनुष्य जीवन पाया ,यूं व्यर्थ जाए ना |
वह सुन्दरी सुमुखी ,सज सवर चल दी
रीत यहाँ की जाने ना ,चाल सीधी चले ना |
उसकी नागिन जैसी ,बल खाती लंबी वेणी
मुख में बीड़ा दबाना ,बिना हंसे चले ना |
मंद मंद मुस्काना ,ध्यान कहीं भटकाना
गुमराह होती जाना ,मार्ग है अनजाना |
मन में होती अशांति ,तूती बजे ना फिर भी
प्रभु के भजन गाना ,नार बिन चले ना|
आशा
29 जून, 2011
है यही रीत दुनिया की
हरीतिमा वन मंडल की
अपनी ओर खींच रही थी
मौसम की पहली बारिश थी
हल्की सी बूंदाबांदी थी
तन भीगा मन भी सरसा
जब वर्षा में तेजी आई
पत्तों को छू कर बूंदे आईं |
पगडंडी पर पानी था
फिर भी पास एक
सूखा साखा पेड़ खडा था
था पत्ता विहीन
था तना भी बिना छाल का |
उसमें कोई तंत न था
जीवन उसका चुक गया था
कई टहनियाँ काट कर
ईंधन बनाया उन्हें जलाया
जब भी कोई उसे देखता
सब नश्वर है यही सोचता |
पहले जब वह हरा भरा था
कई पक्षी वहाँ आते थे
अपना बसेरा भी बनाते थे
चहकते थे फुदकते थे
मीठे फल उसके खाते थे
जो फल नीचे गिर जाते थे
पशुओं का आहार होते थे |
घनी घनेरी डालियाँ उसकी
छाया देती थीं पथिकों को
था वह बहुत उपयोगी
सभी यही कहते थे |
पर आज वह
ठूंठ हो कर रह गया है
सब ने अनुपयोगी समझ
उसका साथ छोड़ दिया है
है यही रीत दुनिया की
उसे ही सब चाहते हैं
जो आए काम किसी के
उपयोगिता हो भरपूर
तभी मन भाए सभी को |
जैसे ही मृत हो जाए
जो कुछ भी पास था
वह भी लूट लिया जाता है
कुछ अधिकार से
कुछ अनाधिकार चेष्टा कर
अस्तित्व मिटा देते हैं उसका
वह आज तो ठूंठ है
कल शायद वह भी न रहेगा
लुटेरों की कमी नहीं है
उनको खोजना न पड़ेगा |
आशा