15 सितंबर, 2011

वह दृष्टि


वे आँखें क्या जो झुक जायें
मन में है क्या, न बता पायें
पर मनोभाव पढ़ने के लिए
होती आवश्यक नज़र पारखी |
भावों की अभिव्यक्ति के लिये
होती है कलम आवश्यक
वह कलम क्या जो रूक जाये
भावों को राह न दे पाये |
मन में उठते भावों को यदि
लेखनी का सानिध्य मिले
सशक्त लेखनी से जब
शब्दों को विस्तार मिले
वह दृष्टि क्या, जो न पढ़ पाये
उनका अर्थ न समझ पाये |

आशा



14 सितंबर, 2011

हिन्दी से परहेज कैसा

भाषा अपनी भोजन अपना
रहने का अंदाज है अपना
भिन्न धर्म और नियम उनके
फिर भी बंधे एक सूत्रे से |
है देश के प्रति पूरी निष्ठा
रहते सब भाई चारे से
भारत में रहते हैं
हिन्दुस्तानी कहलाते हैं
फिर भाषा पर विवाद कैसा |
विचारों की अभिव्यक्ति के लिए
सांझा उनको करने ले लिए
कोइ तो भाषा चाहिए
हो जो सहज सरल
ओर बोधगम्य
लिए शब्दों का प्रचुर भण्डार |
हिन्दी तो है सम्मिलित रूप
यहाँ प्रचलित सभी भाषाओं का
जो भी उसे अपनाए
लगे वह उनकी अपनी सी |
जब इंग्लिश सीख सकते हैं
उसे अपना सकते है
फिर हिन्दी को अपनाने से
राष्ट्र भाषा स्वीकारने में
है परहेज कैसा ?
आशा





12 सितंबर, 2011

तुम तो कान्हां निकले


तुमने यह कैसा नेह किया ,कितना सताया तुमने |
ना ही कभी पलट कर देखा ,राह भी देखी उसने |
प्रीत की पेंगें बढ़ाई क्यूं ,तुम तो कान्हां निकले |
याद न आई राधा उनको ,जब गोकुल छोड़ चले |
आशा

11 सितंबर, 2011

मुस्कान रूठ जाएगी


जाने कितनी यादें

दिल में समाई

जब भी झांका वहाँ

तुम ही नजर आए |

वे सुनहरे दिन

वे उल्हाने वे वादे

सारा चैन हर लेते थे

जाने कब पलक झपकती थी

कब सुबह हो जाती थी |

स्वप्नों के झूलों में झूली

राह देखना तब भी न भूली

अधिक देर यदि हो जाती

बहुत व्यथित होती जाती |

द्वार पर होती आहट

मुझे खींच ले जाती तुम तक

नज़रों से नजरें मिलते ही

कली कली खिल जाती |

वे बातें कल की

भूल न पाई अब तक

हो आज भी करीब मेरे

पर प्यार की वह उष्मा

हो गयी है गुम |

कितने बदल गए हो

दुनियादारी में उलझे ऐसे

उसी में खो गए हो

सब कुछ भूल गए हो |

कोइ प्रतिक्रया नहीं दीखती

भाव विहीन चेहरा रहता है

गहन उदास चेहरा दीखता है

हंसना तक भूल गए हो |

इस दुनिया में जीने के लिए

ग्रंथियों की कुंठाओं की

कोइ जगह नहीं है

उन्हें भूल ना पाओ

ऐसी भी कोइ वजह नहीं है |

खुशियों को यदि ठोकर मारी

वे लौट कर न आएंगी

जीवन बोझ हो जाएगा

मुस्कान रूठ जाएगी |

आशा

10 सितंबर, 2011

कशमकश




  • उस दिन तो बरसात न थी
    मौसम सुखमय तब भी न लगा
    सब कुछ था पहले ही सा
    फिर मधुर तराना क्यूं न लगा |
    शायद पहले बंधे हुए थे
    कच्चे धागों की डोर से
    लगती है वह टूटी सी
    सूखी है हरियाली मन की |
    सुबह वही और शाम वही
    है रहने का स्थान वही
    पर लगता वीराना सारा मंजर
    रहता मन बुझा बुझा सा |
    यादों की दुनिया से बाहर
    आने की कशमकश में
    होती है बहुत घुटन
    पर है अनियंत्रित मन |
    मन नहीं चाहता
    किसी और बंधन में बंधना
    अब फंसना नहीं चाहता
    दुनियादारी के चक्रव्यूह में|










07 सितंबर, 2011

प्याज क छिलके


आचरण समाज का

है प्याज के छिलके सा

जब तक उससे चिपका रहता

लगता सब कुछ ठीक सा |

हैं अंदर की परतें

समाज में होते परिवर्तन की

प्रतीक लगती हैं

अंदर होते विघटन की |

दिखते सभी बंधे एक सूत्र में

फिर भी छिपते एक दूसरे से

पीठ किसी की फिरते ही

खंजर घुसता पीछे से |

तीव्र गंघ आती है

किसी किसी हिस्से से

यदि काट कर न फेंका उसे

प्रभावित और भी होते जाते |

ये तो हैं अंदर की बातें

बाहर से सब एक दीखते

आवरण से ढके हुए सब

अच्छे प्याज की मिसाल दीखते |

बाह्य परत उतरते ही

स्पष्ट नजर आते

टकराव और बिखराव

उसी संभ्रांत समाज में |

है कितनी समानता

प्याज में और समाज में

छिलके उतरते ही

दौनों एकसे नजर आते |

फिर असली चेहरा नजर आता

खराब होते प्याज का

या विघटित होते समाज का

जैसे ही छीला जाता

आंखें गीली कर जाता |

आशा

05 सितंबर, 2011

हूँ परेशान



न जाने कैसी कहानी थी

कुछ सोचा मनन किया |

वह मन की बात न कह पाई

बस यही गुनाह किया |

यही सोच कर हूँ परेशान

कि ऐसा कैसे किया |

जंगल की आग का अनुभव

उसने कैसे न किया |

हो कर चंचल प्याला छलकता

वह मुखर बनी रहती |

तब कभी उदास न रह पाती

मन पर बोझ न रखती |

कोमल भावनाओं से कभी

यूं न खेलती रहती |
अपने अछूते विचारों पर

सदा विहसती रहती |