जा पहुंचा सरिता तट पर
वृक्षों की छाँव तले
बहती जल की धारा
था मौसम बड़ा सुहाना
मन भी उससे हारा
वहीं रुका और बैठ गया
जल में पैर डाल अपने
अस्ताचल को जाता सूरज
अटखेलियाँ जल से करता
दृश्य ने ऐसा बांधा
उठने का मन न हुआ
सहसा ठहरी दृष्टि
जल में उठता बुलबुला देख
पहले था वह नन्हा सा
फिर बड़ा हुआ और फूट गया
वह देखता ही रह गया
वे एक से अनेक हुए
बहाव के साथ बहे
थोड़ी दूर तक गए
फिर विलीन जल में हुए
विचारों ने ली करवट
सिलसिला शुरू हुआ
जीवन के बिभिन्न पहलुओं की
सतत चलती प्रक्रिया का
उसके समापन का
सृष्टि का यही तो क्रम है
क्या सजीव क्या निर्जीव में
उसे लगा खुद का जीवन
पानी के एक बुलबुले सा |
आशा