कल्पना छोटे से
घर की
जाने कब से थी मन
में
सपनों में दिखाई
देता वह
और आसपास
की हरियाली
जहां बिताती
घंटों बैठ
कापी कलम किताब ले
पन्ने भावों के भरती
कल्पना साकार
करती
पर सपना सपना ही
रह गया
कभी पूर्ण कहीं
हुआ
व्यवधान नित नए
आए
विराम उनका न लगा
रुक नहीं पाए
ऊपर से महंगाई के
साए
दो कक्ष भी पूरे
न हुए
घर अधूरा रहा
प्रहार मन पर हुआ
यदि एक ही
लक्ष होता
मन नियंत्रित
होता
तभी स्वप्न साकार
होता
केवल कल्पना में
न जीता |
आशा