तारों की छाँव में
तारे गिन गिन
कब रात बीती मुझे
याद नहीं |
कब भोर हुई मुर्गे ने दी बाग़
पक्षियों का कोलाहल बढ़ा
यह तक मुझे मालूम
नहीं |
रात तारे गिन थकी भोर हुई तब पलक झपकी
नींद ने थपकी दी कब
सो गई पता नहीं |
प्रातःकाल की रश्मियाँ खेलती हरियाली संग
कब लौटीं अम्बर में यह भी याद नहीं |
धूप चढी आँखें खुलीं
फिर काम की धुन लगी
व्यस्त हुई इतनी कब
शाम हुई पता नहीं |
आदित्य चला अस्ताचल को लाल सुनहरी थाली सा
कभी छिपा वृक्षों के पीछे फिर हुआ उजागर
आसमा हुआ रक्तिम लाल सुनहरा |
रात्रि फिर से आई साथ चाँद तारों को भी लाई
मैंने भी सब काम कर शय्या
की ओर दौड़ लगाई |
यही दिन रात की है
मेरे जीवन की कहानी
कोई परिवर्तन नहीं इसमें
इतना भर है याद मुझे |
जीवन एक रस हुआ है
चाहती हूँ सुकून का थामना पल्ला
कुछ नया करने की लालसा
उपजी है मन में |
आशा